- वीर विनोद छाबड़ा
हमारी ज़िंदगी में अनेक
मिश्रा आये हैं, और सब के सब विचित्र। लीजिये एक और मिश्रा हाज़िर हैं।
यह विनोद बिहारी मिश्रा
हैं। सेवानिवृत हैं। कोई उन्हें मिश्राजी बोलता था तो कोई पंडितजी। पंडितजी कहने वालों
पर निहाल रहते थे। यों थे भी ज्ञानी। किसी को धर्म की गलत व्याख्या करते सुनते तो प्रवचन
भी दे डालते।
पदनाम से वो परिचर
थे। मगर लाख दुखों की एक दवा। यह दवा मिलती थी उनके थैले में। पोस्ट कार्ड- साधारण
के साथ जवाबी, अंतर्देशीय और लिफाफा, रसीदी टिकट,
लोकप्रिय ब्रांड की सिगरेट, तंबाकू के पाउच। पार्ले बिस्कुट और भुजिया-फ्राई
दाल मूंग के पैकेट। सर्कुलर लाइब्रेरी भी झोले में रहती थी।
दूसरे हाथ में बड़ी
सी चाय की केतली जिसमें कम से कम बीस-पच्चीस कप रहती होगी। ये चाय की केतली दिन में
दो बार चलती थी। जाने कहां चाय पिलाया करते थे। चाय नपते समय उनका हाथ कांपता था,
मगर क्या मज़ाल कि चाय कप से कभी बाहर गिरी हो और किसी को पौन कप से ज्यादा मिली
हो।
ज़रूरी नहीं कि हर रोज़
चाय अच्छी रही हो। वाहियात चाय भी कई बार मिली। लेकिन क्या मज़ाल किसी की कि नुकताचीनी
करे। सीट पर बैठे बैठे चाय मिलनी बंद तो होगी ही, बाकी सेवाएं भी बंद
होने का ख़तरा कौन मोल ले।
और पेमेंट,
इसकी उन्हें कभी फुर्सत ही नहीं रही। सुबह से शाम तक चलना ही चलना। हमेशा महीने
के आखिर में पेमेंट लिया। हमें याद नहीं आता कि उन्होंने कभी हिसाब-किताब लिखा हो।
हिसाब आप रखना देने वाले की ड्यूटी में शामिल रहा। बेईमानी करने का दुस्साहस किसी ने
किया तो फिर उसने झेला पंडित जी का श्राप। बिलकुल दुर्वासा मुनि की साक्षात मूर्ति।
उनका खज़ाना एक लोहे
के संदूक में रहा। साथ में एक मोटी लोहे की चैन। याद नहीं पड़ता कि चालीस साल के सेवाकाल
में एक बार भी पंडितजी का ट्रांसफर हुआ हो। वो सेवानिवृति के बाद भी तीन साल तक तक
आते रहे, हफ्ते में तीन बार। चाय पिलाना छोड़ बाकी गतिविधियां ज़ारी रहीं।
हमारे जैसे कई लोगों को उनकी चाय से छुट्टी मिली। न जाने क्यों हमें उनकी चाय कभी टेस्टी
नहीं लगी। लेकिन इसके बावजूद हम उनके ग्राहक बने रहे। कई साल तक हम उनके बॉस भी रहे।
हम पुस्तक प्रेमी थे।
बुकस्टाल से खरीदने की बजाय उन्हीं से खरीद लेते। अलावा इसके बिस्कुट, रसीदी टिकट वगैरह भी।
मज़े की बात यह थी कि कुछ चुने हुए लोगों से उन्होंने कभी कैश पेमेंट नहीं लिया बल्कि चेक से लिया और वो भी
क्रॉस। इनमें हम भी शामिल थे। जब चेक वो बैंक में जमा करने जाते उनका सीना गर्व से
फूला हुआ होता था।
पंडितजी अच्छा साहित्य
पढ़ने के भी शौक़ीन रहे। शाम पांच बजे के बाद वो एक घंटा बैठ कर पुस्तक -पढ़ते हुए देखे
जाते थे। वो हमारे पिताजी के मुरीद रहे। हम भी दिवंगत पिता की पुण्य तिथि और जन्मतिथि
पर उन्हें कुरता-पायजामा के साथ नकद दक्षिणा देते रहे।
घरेलू फ्रंट पर भी
वो विचित्र प्राणी रहे। एक नंबर के हिटलर। एक बार जो कह दिया तो अपनी भी न सुनी। अक्सर
रूठ कर मंदिर चले जाते। वहीं रात में सो भी जाते। कई बार तो कई कई दिन वहीं रहे। लेकिन
बेटी से डरते थे। वही उन्हें सीधा करती थी।
अभी दो दिन पहले हमें
मिले। पहले की भांति प्रसन्नचित नहीं थे। झुरीयों से भरा उनका चेहरा बयां कर रहा था
कि घुटनों और पैरों का दर्द अब काफी रहता है।
हमने उनसे आशीर्वाद
लिया और उनके शीघ्र स्वस्थ होने की दुआ की।
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नोट - हमने यह पोस्ट
१७ फरवरी को लिखी थी। और फेस बुक पर पोस्ट भी की थी। आज ही हमें सूचना मिली है कि विनोद
बिहारी मिश्रा विगत २२ दिसंबर २०१६ को परलोक सिधार गए हैं। परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना
है कि उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।
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