-वीर विनोद छाबड़ा
इधर पिछले पंद्रह साल छोड़ दूं तो अब तक की ज़िंदगी में सैकड़ों फ़िल्में देखी हैं।
कई फिल्मों के खास पल याद हैं। ऐसा ही एक पल है ऋषिकेश मुकर्जी की 'गुड्डी' का। ४४ साल हो गए।
यों सुनने में कोई ख़ास नहीं है। मगर देखने में गज़ब की परफॉरमेंस और टाइमिंग। कुछ ख़ास
जानकर ही स्क्रिप्ट शामिल किया गया होगा। उस ज़माने के स्क्रिप्ट लेखक भी ज़बरदस्त कल्पनाशील
हुआ करते थे। ज़िंदगी की छोटी-छोटी बातें भी मायने रखती थीं। यही कारण था कि दर्शक बड़ी
आसानी से उन्हें अपने साथ जोड़ लेता। मैं भी ऐसा ही दर्शक रहा हूं जो अभी तक नही भूल
सका हूं उस दृश्य को।
एके हंगल और जाया भादुड़ी हैं इस सीन में। एके हंगल गज़ब के नेचुरल आर्टिस्ट थे।
उन्हें कोई भी सीन करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। हमेशा ऐसा लगा कि इसी रोल
के लिए बने हैं।
और जया तो बस 'गुड्डी' ही थी। उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता को लेकर कोई उससे कितनी ही घृणा क्यों न करता
हो, मगर उनके अभिनय पर कभी कोई सवाल नहीं उठा सकता। हर फिल्म में उन्होंने भूमिका महत्वपूर्ण
न होते हुए भी अपनी मौजूदगी दर्ज करायी है।
बहरहाल मैं, सीन की बात कर रहा था।
हुआ यों गुड्डी स्कूल की स्कर्ट-ब्लाउज़ छोड़ कर एकदम से साड़ी में सामने आ खड़ी होती
है। उसे आज अपने होने वाले मंगेतर के साथ घूमने जाना है। वो पिता एके हंगल के पांव
छूती है। हंगल कुछ खा रहे हैं या अख़बार पढ़ रहे हैं। उन्होंने अपनी बेटी को कभी साड़ी
में नहीं देखा है। वो सिर्फ साड़ी ही देख पाते हैं। उन्हें लगा कि पड़ोस में रहने वाले
की बहु है। यों यह भारतीय संस्कृति का प्रतीक भी है कि बड़े-बुज़ुर्ग बहु-बेटियों का
चेहरा नहीं देखा करते थे। आहट और चाल से पहचानते थे।
एके हंगल पांव छूने वाली का चेहरा देखे बिना पत्नी से पूछते हैं - यह किसकी बहु
है?
मैं दावे से कह रहा हूं कि जब हंगल ने यह पूछा था तो हॉल में बैठा कोई दर्शक ऐसा
नहीं था जिसके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान नहीं थी।
नोट - मित्रों आप भी याद करो कोई ऐसा पल।
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