Tuesday, January 24, 2017

अफ़सोस के बहाने

- वीर विनोद छाबड़ा
अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी दिवंगत की आत्मा की शांति लिए अफ़सोस करने जाते हैं। घंटा भर वहां बैठते हैं। जैसे टाइम पास कर रहे हों। चाय पीते हैं और मीठा भकोसते हैं। इस एक घंटे में दिवंगत का हिस्सा महज़ १० मिनट भी नहीं रहता।
अभी उस दिन की ही बात है। एक मित्र दिवंगत हो गए थे। काफी क्लोज़ थे। घाट तो गए ही थे। संवेदना व्यक्त करने घर जाना भी बनता था। हम चार मित्र उनके घर पहुंचे।
शुरुआत कुरेदने से हुई - हमें पिछले हफ्ते मिले थे। अच्छे भले थे। अचानक ये सब कैसे हुआ?
उनकी पत्नी यह इस बात का जवाब शायद अब तक हज़ार बार दे चुकी थी। उनकी आंख के आंसू भी सूख चुके थे। एक साँस में सब बता गयीं। सुबह उठे। बाथरूम से वापस आये। चाय के लिए बोले। जब तक मैं बना कर लाई तब तक... 
हम में से एक बोले - वो हमारे चचिया ससुर के मौसेरे भाई के ससुर जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। इंसुलिन नहीं लगाया। सुबह-सुबह इसके आगे उन्होंने एक्शन में बताया - गर्दन झटके से टेढ़ी की और दोनों हाथ ऊपर की ओर उठा दिए।
दूसरे साथी को भी ऐसा ही कोई किस्सा याद आया।
हमने देखा तीसरे वाले का भी दिल भरा था। कुछ बताने चाह रहा था।
तभी हमने दिवंगत के साथ बिताये पलों के बारे में कुछ बताना शुरू किया। हमारा मक़सद कई दिनों से उनके घर में चली आ रही एकरसता को तोडना भी था।
लेकिन हमारी बात को हमारे साथी ही काट कर कहां से कहां ले गए।
ऐसे में होना यह चाहिए कि दिवंगत की अच्छाइयों को याद करो।
उलटे घर वालों को ही लोग कटघरे में खड़ा कर देते हैं। ऐसा न करके ऐसा किया होता तो प्राण बच जाते। फलाने डॉक्टर के पास जाना चाहिए था।
अरे भाई, सुबह पांच बजे कौन माई का लाल डॉक्टर दो मिनट के नोटिस पर आपके घर पहुंच सकता है?
जैसा कि दिवंगत के पत्नी ने बताया उससे हमें तो यही लगा कि उन्होंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं रख छोड़ी। उन्होंने बताया कि हमारे पास तो कार भी नहीं थी। पड़ोसी के पास थी। लेकिन वो बाहर गए थे। बेटा पांच किलोमीटर दूर रहता है। जब तक वो कार लेकर आया तब तक देर हो चुकी थी। फिर भी अस्पताल गए। जवाब मिला। घर ले जाइये। तसल्ली नहीं हुई। दूसरे अस्पताल गए। वहां भी यही जवाब। बहुत देर हो चुकी है।

अब इससे आगे एक साहब ने सलाह दे डाली। अगर एयर टैक्सी का इंतज़ाम करके से दिल्ली ले गए होतेऔर इसके आगे उन्होंने एयर टैक्सी का एक किस्सा सुनाना शुरू कर दिया। बामुश्किल शांत हुए।
एक और साहब भी उत्सुक थे कोई किस्सा सुनाने के लिए या शायद सलाह देने के लिए। हमसे बर्दाश्त नहीं हुआ। हम उठ कर खड़े हो गए। हाथ जोड़े और बाहर आ गए। हमें अपना बचपन याद आ गया। हमारे एक रिश्तेदार होते थे। उन्हें बस खबर मिल जाए कि फलां दिवंगत हुआ है। फ़ौरन पहुंच जाते। घड़ी देखकर पूरे दस मिनट बैठते। और इस पूरे दस मिनट तक सिर्फ़ दिवंगत के बारे में ही बात करते - ओये मेरे दोस्त पूरणलाल। तेरा जैसा बंदा दूजा नहीं मिलना। ओ रामजी भले लोगों को क्यों उठा लेता हैं। ओ तेरे जैसा यार कहां से लाऊंगा

कभी कभी ओवर भी हो जाते थे। फिर घडी देखते। उठ कर सबको नमस्ते करते और बाहर निकल जाते। अपनी आंखों से निकल आये आंसू पोंछते और आगे चल देते। शायद किसी और के घर अफ़सोस करने। चाहे वो उनका अपना सगा या यार हो या न हो। 
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