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वीर विनोद छाबड़ा
बात पुरानी ज़रूर है मगर सोलह आने सच। घूस लेने वाले को हिकारत की नज़र से देखा जाता
था। उसके परिवार को भी सामाजिक जिल्लत का सामना करना पड़ता था।
मुझे बचपन का वो दिन याद है। मेरे एक साथी ने दूसरे साथी से पूछा - सुना है तुम्हारे
पिताजी घूस लेते हैं। यह सुनते ही उसने ताबड़-तोड़ तीन-चार घूंसे पेट और पीठ पर दे मारे
- मेरे पिताजी ईमानदार हैं। उन्हें फंसाया गया है।
मतलब यह है कहने का किसी को इतनी आसानी से घूसखोर नही कहा जाता था। आज कोई ऐसा
कह कर देखे। अगला बोलेगा - हां, मेरा बाप रिश्वत खाता है। तेरे बाप का क्या जाता है? सुना है तेरे बाप में
दम ही नहीं है।
हमें एक सहकर्मी कहा करते थे। तीस साल हो गए आपको नौकरी करते हुए, कुछ सीख नहीं पाए अभी
तक। अभी छह-साथ साल बाकी हैं। मानो तो कुछ सिखा दें। हमने मना कर दिया तो नाराज हो
गए। छोड़ दीजिये यह कुर्सी। दूसरों को आने दीजिये।
आज के दौर में घूस लेने वाला कतई शर्मिंदा नहीं होता था। पकडे जाने पर फ़ौरन मामला
ख़त्म। बड़ी सिंपल सी बात है भाई। घूस लेते पकडे गए और घूस दे कर छूट गए।
घूस लेने वाले को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी है। जो जितना बड़ा घूसखोर समाज में
उतनी ही ज्यादा धमक और उतना ही महंगा दुल्हा।
आज घूस लेने वाला जब पकड़ा जाता है तो मीडिया न्यूज़ बनती है। लेकिन धारणा यह बनती
है कि लेते तो सभी हैं। लेकिन जो 'बेचारा' पकड़ में आ गया, वो धर लिया गया।
इन तमाम शाश्वत मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जा चुकी हैं - झूठ बोलना पाप है। रिश्वत
लेना और देना दोनों जुर्म है। ईमानदारी की कमाई में ही बरकत है। जीत सच्चाई की होती
है।
उस दिन मैंने दो लड़कों की बात सुनी। पहले ने दूसरे से पूछा - सुना है, तुम्हारे पिताजी को
पुलिस ने रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ा। और अब वो जेल में हैं।
दूसरे ने जवाब दिया - हां, तो क्या हुआ! गांधी जी भी तो जेल गए थे। यह सब साज़िश है।
हम गुनगुनाते हुए निकल लिये - सच्चे फांसी चढ़दे वेखे झूठा मौज उड़ावे, लोकी कएंदे रब दी माया
मैं कएंदा अन्याय, ओ मैं कोई झूठ बोल्या…
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सच्चे फांसी चढ़दे वेखे झूठा मौज उड़ावे, लोकी कएंदे रब दी माया मैं कएंदा अन्याय, ओ मैं कोई झूठ बोल्या…
ReplyDeleteना जी ना ..
वाह वाह
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