- वीर विनोद छाबड़ा
तीन साल पहले तक हम
सिर्फ़ सुना ही करते थे, सेल्फ़ी सेल्फी। कुछ समझ नहीं आता था। लेकिन इतना मालूम था कि
नए ज़माने की कोई आईटम है। हमने इसे तब जाना जब भरे बाज़ार लड़कियों को मोबाईल के सामने
खड़े होकर बगूले जैसी थूथन बनाते देखा।
यार, यह तो कमाल है! अपनी
तस्वीर खुद खींच लो। हमने तो हमने देखा था कि कैमरे में टाईमर लगाया और फ़ौरन कैमरे
के सामने बैठ गए। क्लिक की आवाज़ आई। हो गया फैमिली फोटो। एक बार हमारे एक मित्र इस
फ़ौरन के चक्कर में लड़खड़ा कर गिर पड़े थे। टांग टूट गयी। तीन महीने बिस्तर पर रहे।
उस समय न हम फेस बुक
पर थे और न ही स्मार्ट फोन होता था। यह है क्या बलां? इसी ख़ोज के साथ-साथ
हमारे परिवर्तन की भी शुरूआत हुई। दोस्तों का सहारा तो था ही। पहला काम किया,
स्मार्ट फ़ोन लिया। दनादन सेल्फियां मारनी शुरू कीं। लेफ्ट-राईट और सेंटर।
आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा
भी हमने सेल्फी में ही पायी है। खुद को खुद से गले लगाने को मन किया। कितना धांसू लग
रहे हो दोस्त? हो जाए एक और। पसंद नहीं आएं तो डिलीट कर देना। ऐसा तो है नहीं
कि बिका माल वापस नहीं होगा। फेसबुक पर करीब करीब रोज़ प्रोफाईल बदलीं और कवर अपडेट
किये। सब सेल्फियां ही सेल्फियां। बाजार गए। उधर मेमसाब शॉपिंग कर रही हैं। इधर हम
स्कूटी पर बैठे-बैठे सेल्फियां मारते हैं। टाईम पास करने का बढ़िया तरीका। एक साहब ने
टोक दिया। आगे-पीछे मां-बहनें घूमती हैं। हमने विनम्र निवेदन किया - बड़े सेवक जी सेल्फी
सेल्फी करते हैं, उन्हें तो मना कर न सके।
लेकिन खतरे भी बहुत
देखे हमने। एक दिन मित्र का बेटा मंदिर गया। बजरंगबली के साथ सेल्फी का मूड हो आया।
तभी पीछे से एक देवी जी पास हो गयीं। हंगामा खड़ा हो गया। बेचारे पिटते-पिटते बचे। तभी
किसी ने एक और इलज़ाम चिपका दिया। बच्चू, भगवान जी के साथ सेल्फी
लेकर ठिठौली करता है। घसीट के दिए दो कंटाप।
अब तो कुल हिंद इसकी
चपेट में है। मुरदे के साथ भी सेल्फी लेना आदमी नहीं भूलता है। बार-बार चेहरे से सफ़ेद
कपड़ा हटाया जाता है। चाचा, बुआ, मौसी, ताऊ सब आओ, दादा जी के साथ सेल्फी
ले लो। देखो कैसा मुस्कुराता चेहरा है। स्माइल प्लीज भी नहीं कहना पड़ रहा है।
सूखा हो या बाढ़। पहले
सेल्फी ले लो। ताकि सनद रहे। रेप पीड़ित को भी नहीं छोड़ा सेल्फी समाज सेवकों ने। रोज़
अख़बार में पढ़ते हैं और चैनल वाले बताते हैं सेल्फी के चक्कर में कोई डूब मरा तो कोई
बिजली के तार से चिपक गया। घर में मित्रगण आते हैं। चाय-पानी एक तरफ। पहले सेल्फ़ी हो
जाये ताकि भूल न जायें। बड़े-बड़े शॉपिंग सेंटरों, बगीचों, चिड़ियाघरों और स्मारकों
में सुरक्षित सेल्फी पॉइंट बना दिए गए हैं। सितारों वाले टीवी शो में भी सेल्फ़ी ज़रूरी
हिस्सा हो गयी है।
लेकिन बात यहां रुकने
वाली नहीं है। अभी कल ही की बात है। अपने छिद्दू बाबू की बेटी का मुंह टेड़ा हो गया।
भागे गए अस्पताल। डॉक्टर ने बताया इसे सेल्फिटोनिया हो गया है। यह नयी बीमारी है। बंदरिया
की तरह मुंह बना कर सुबह से शाम तक सेल्फियां मारने से पैदा होती है। लेकिन घबराने
की बात नहीं। पहली ही स्टेज पर पकड़ ली गयी। एक्सरसाईज़ से ठीक हो जाएगी। लेकिन शर्मा
जी का निक्कू इतना भाग्यशाली नहीं रहा। उसे सेल्फीटाइटिस हो गया। थोबड़ा इतना इतना बिगड़
गया कि तीन महीने के लिए स्टील का फ्रेम फिट करना पड़ा।
पिछली गली वाली टप्पू
की मम्मी कहीं से सुन कर आयी है कि सेल्फिमोनिया और सेल्फीगुनिया भी भारत में दस्तक
दे चुका है। इसने महामारी का रूप धर लिया है। रिसर्च शुरू चुकी है। बच्चे के पैदाइश
पर मलेरिया, चेचक, टीबी, पोलियो, काली खांसी आदि निरोधक
टीकाकरण के साथ-साथ एंटी-सेल्फ़ीलेरिया टीका भी लगेगा।
लेकिन इस खोज में बीस
बरस लगेंगे। हमारा सुझाव है कि तब तक सेल्फी को पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बना दिया
जाए। जिसकी अपने टीचर के साथ बढ़िया सेल्फी होगी, उसे दस एक्स्ट्रा नंबर।
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Published in Prabhat Khabar dated 16 Jan 2017
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