- वीर विनोद छाबड़ा
बलराज साहनी एक बेहतरीन नेचुरल आर्टिस्ट थे। उन्हें एक्टिंग के लिए कोई मेहनत नहीं
करनी पड़ती थी। रोल सुना और घुस गए किरदार की खाल में। रिक्शावाले हैं या खेतिहर मजदूर
फिर घड़ीसाज़ या पठान, उनमें बलराज साहनी ढूंढना नामुमकिन है। याद करिये 'वक़्त' के उस अहंकारी लाला
केदारनाथ को जिसकी दुनिया भूकंप के एक झटके ने तबाह कर दी थी। बलराज जिस फिल्म में
रहे, किरदार छोटा रहा हो या बड़ा, अपनी मजबूत मौजूदगी का अहसास ज़रूर कराते रहे। कई फ़िल्में तो उनके आसपास घूमती रही।
दो बीघा ज़मीन, काबुलीवाला, वक़्त, सीमा, एक फूल दो माली, पवित्र पापी, छोटी बहन, भाभी, नीलकमल, दो रास्ते आदि।
उन्होंने सौ से ज्यादा फ़िल्में की। हर फिल्म में बेमिसाल एक्टिंग का कोई न कोई
किस्सा ज़रूर मशहूर हुआ।
उन दिनों के.आसिफ़ एक फिल्म बना रहे थे - हलचल। इसमें दिलीप कुमार और नर्गिस के
साथ बलराज साहनी की भी अहम भूमिका थी।
बलराज इसमें एक जेलर के रोल में थे। लेकिन त्रासदी यह थी कि बलराज खुद उन दिनों
जेल में थे। दरअसल बलराज सक्रिय राजनीति में भी थे। साम्यवादी पार्टी के सदस्य थे।
एक आंदोलन के सिलसिले में सरकार ने उन्हें जेल में बंद कर दिया गया था।
इधर शूटिंग रुक गयी। प्रोड्यूसर के.आसिफ़ कर्ज़ लेकर फिल्म बना रहे थे। अतः उनको
बहुत आर्थिक क्षति हो रही थी। उन्होंने सरकार से दुहाई की। लेकिन नाकाम रहे। मजबूर
होकर के.आसिफ़ माननीय कोर्ट पहुंच गए। अपनी गले तक कर्ज में डूबी दयनीय स्थिति का वर्णन
किया। बताया कि अगर बलराज शूटिंग नहीं करेंगे तो पहाड़ टूट पड़ेगा।
माननीय कोर्ट को दया आई। हुक्म हुआ कि सुरक्षा प्रहरियों की छाया में बलराज को
शूटिंग के लिए रिहा किया जाए और शूटिंग के बाद फिर वापस जेल।
अगले दिन बलराज साहनी क़ैदी की ड्रेस में चार सिपाहियों के घेरे में स्टूडियो पहुंचे।
के.आसिफ़ को राहत मिली।
बलराज मेकअप रूम में दाख़िल हुए। सिपाहियों को बाहर ही बैठा दिया गया।
थोड़ी देर बाद बलराज जेलर की ड्रेस में बाहर निकले। नेचुरल आर्टिस्ट होने के साथ-साथ
रोबीला चेहरा तो बलराज का था ही। सिपाहियों ने उन्हें असली जेलर समझ लिया। हड़बड़ा कर
सब खड़े हो गए। जोरदार सल्यूट मारा।
बलराज ने भी उनका अभिवादन स्वीकार किया। लेकिन अगले ही क्षण मुस्कुरा दिए - अरे
भई, मैं कोई असली जेलर नहीं हूं। नकली हूं, तुम्हारा क़ैदी।
कुछ घंटे शूटिंग चली। बलराज ने कैदियों की ड्रेस पहनी और वापस जेल में। अगले दिन
फिर सुरक्षा प्रहरी की चाय और बलराज शूट पर... यह क्रम कई दिन तक चला।
कुछ अरसे बाद सरकार की ग़लतफ़हमी दूर हुई कि बलराज और उनके साथियों का असली मक़सद
किसानों, मज़दूरों और मजलूमों पर हो रहे ज़ुल्म का विरोध करना है और ऐसा करना राजद्रोह नहीं
है। बलराज और उनके साथी जेल से बाहर आ गए और उनके साथ जेल में बंद शायर मजरूह सुल्तानपुरी
भी। बलराज अंग्रेजी में एमए थे। लेकिन हिंदी पर भी बहुत अच्छी पकड़ थी। बीए में उनके
पास हिंदी विषय भी था।
बलराज साहनी ने महात्मा गांधी के साथ काम किया और टैगोर के शांतिनिकेतन में शिक्षक
भी रहे। बीबीसी की हिंदी सेवा पर भी कई बरस रहे। उनका जन्म ०१ मई १९१३ को हुआ और निधन
हार्ट फेल से १३ अप्रैल १९७३ को। गर्म हवा उनकी अंतिम फिल्म थी और मृत्यु से एक दिन
पहले उन्होंने डबिंग की थी। उनका अंतिम संवाद था - इंसान कब तक अकेला जी सकता है। उन
दिनों बलराज साहनी अपनी बेटी शबनम के एक दुर्घटना में निधन से बहुत व्यथित थे।
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Published in Navodaya Times dated 25 Jan 2017
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शुक्रिया छाबड़ा साहब आपने बहुत ही लाजवाब लेख लिखा है। आपने बलराज साहनी साहब की जिंदगी के लगभग हर काबिलेगौर पहलू पर रोशनी डाली है। ईश्वर आपको दीर्घायु करे। अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा।
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