-वीर विनोद छाबड़ा
गर्मी तो बड़ों के लिए
है। लेकिन बच्चों के लिए गर्मी उत्सव है। उनको मतलब है तो गर्मी की छुट्टियां से। छुट्टियों
का मतलब है - औकात के हिसाब से हिल स्टेशन/ मामू-नानू और दादू-ताऊ के घर जाकर धमा-चौकड़ी
मचाना/ स्कूल से और पढाई से छुट्टी वगैरह वगैरह।
हमें अपना बचपन खूब
याद है। गर्मी की छुट्टी हुई नहीं कि पहुंच गए अपने शहर लखनऊ के आलमबाग इलाके के रेलवे
कॉलोनी का वेजिटेबल ग्राउंड या लंगड़ा फाटक के आस-पास । ऊंंचे-ऊंचे जंगल जलेबी के पेड़।
लेकिन यह मस्ती ज्यादा दिन तक कभी नहीं ठहरी। मई के अंत तक हम दादाजी के पास दिल्ली
चले जाते थे।
पिताजी की सरकारी नौकरी
के कारण हम लोग संयुक्त परिवार के सुख से वंचित रहे। गर्मी की छुट्टी में ही सबसे मिलना-जुलना
संभव हो पाता था। शादी-ब्याह भी इन्हीं दिनों रखे जाते। दिल्ली में पहले क़ुतुब रोड
पर घर था। लेकिन साठ के दशक की शुरुआत में चिमनी मिल गली, बाड़ा हिन्दू राव में
स्थाई हो गए।
चलन के मुताबिक़ दादाजी
को लालाजी और दादी को भाभीजी कहा जाता था। बाकी चाचा और बुआ के बच्चे भी जमा हो जाते।
उत्सव जैसा माहौल बन जाता था। खूब मज़ा आता।
धमा-चौकड़ी और छोटे-मोटे लड़ाई-झगड़े, रूठा रुठौवल। रोज़ कैरम बोर्ड और लूडो,
कुछ नया खाने को और दिल्ली के रमणीय स्थलों पर पिकनिक मनाना। कभी पिक्चर का प्रोग्राम
भी। पिक्चर कैसी भी हो, मतलब तो सिर्फ़ तांगे और ट्राम पर घूमना होता था। लालाजी जब शाम
घर लौटते थे तो उनके दोनों हाथों में थैले होते थे। फलों से भरे हुए। हम लोग टूट पड़ते।
कभी-कभी रंग-बिरंगे कपड़े भी होते। यह मेरा है, यह तेरा है। खूब छीना-झपटी
होती।
लालाजी का थोक का बिज़नेस
था - की रिंग एंड चेनों का। रोज़ सुबह सीनियरिटी के हिसाब से सबको चवन्नी से लेकर एक
रूपया तक दिन के खर्च के लिए मिलता। शुरू में हमारी गिनती चवन्नी में थी। जब हमने आठवां
पास कर लिया तो एक रुपया हो गयी।
दोपहर में कुल्फ़ी वाला
फेरी लगाता था। फिर उबली हुई छल्ली (भुट्टा) मिर्च के घोल में डुबोने वाले का नंबर
लगता। मुंह जल जाता। हाय, हाय चिल्लाते हुए पानी के लिए घर भागते थे।
कब बड़े हो गए पता ही
नहीं चला। लेकिन गर्मी में दिल्ली जाना नहीं छूटा। लालाजी रोज़ का खर्च देना नहीं भूले।
अब जेब खर्च दो रूपए हो गए थे। लेकिन जिस दिन पिक्चर का नाम लेते उस दिन सीधा पांच
रुपया एक्स्ट्रा।
लाला जी खुद पिक्चर
के शौक़ीन थे। अक्सर अकेले पिक्चर देख आते - चुपके चुपके। धार्मिक फ़िल्म होती तो भाभीजी यानि दादीजी को भी ले जाते।
एक दिन हमें राज़ के बात पता चली। हमारे पुरखों के शहर मियांवाली
(अब पाकिस्तान ) में वो एक सिनेमा हाल के पार्टनर थे। नाम था दिलरुबा टॉकीज़। ये
1933 की बात है। लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने हाथ खींच लिया और अपने बजाजी के धंधे में
पूरी तरह रम गए।
लालाजी का 1992 में
निधन हो गया। हालांकि दिल्ली से नाता नहीं टूटा, लेकिन गर्मी की छुट्टी
मनाने का सिलसिला टूट गया।
आज भी जब-जब स्कूलों
में गर्मी की छुट्टी होती है तो हमें याद आती है क़ुतुब रोड के हवेलीनुमा मकान की लंबी
और ठंडी ड्योढ़ी। जहां पूरा खानदान दिन में चारपाइयां बिछा कर जम जाता था और वहीं पर
खाना भी खाते। सोना भी होता था। याद आती है चिमनी मिल की वो लगभग पांच सौ मीटर की गली
भी। उसके दोनों तरफ दो-तीन मंजिले मकान। जहां हमें धूप के कभी दर्शन नहीं हुए।
अब सुख-दुःख में दिल्ली
आना-जाना होता है। लेकिन अब चिमनी मिल गली में कोई नहीं रहता। सब अलग-अलग और दूर-दूर
चले गए हैं। कोई मॉडल टाउन में है तो कोई पीरगढ़ी चला गया। हम भी सुबह पहुंचे और शाम
की ट्रेन से वापस। टाइम ही नहीं मिलता। इंसान बहुत बंट गया है। यह भी देखना और वो भी।
यहां भी रहना और वहां भी जाना है। हर बार यह कह कर विदा लेते हैं जल्दी आएंगे। लेकिन
वो 'जल्दी' आसानी से नहीं आती है।
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