- वीर विनोद छाबड़ा
यह १९९६ की बात है। मैं हरियाणा-राजस्थान बॉर्डर पर स्थित संगरिया जा रहा था, अपनीं भांजी की शादी
में शिरकत करने। मैं लखनऊ की नफ़ासत के माहौल में पला-पोसा हरियाणवी बोली से कतई परिचित
नहीं था।
मुझे बताया गया था कि दिल्ली के आईएसबीटी से सिरसा की बस पकड़ना और फिर वहां से
संगरिया।
आईएसबीटी से मैं सिरसा जाने वाली बस में बैठ गया। थोड़ी देर में कंडक्टर आया - कित्थे
जाणां?
इत्तेफ़ाक़ से मैं ही पहला मुसाफ़िर मैं ही था। मैंने कहा - सिरसा जाना है।
कंडक्टर हरियाणवी लहज़े में इतनी जोर से और तेज़ी से बोला - .... कड्ड पैसे।
मैं तो डर ही गया। कमजोर दिल होता तो हार्ट पर ज़रूर असर ज़रूर पड़ता। बहरहाल मैं
समझ नहीं पाया कि ये बोल क्या रहा है।
मैंने कंडक्टर से बोला - हुज़ूर,
मैं समझ नहीं पाया कि आपने क्या फ़रमाया।
बगल में बैठा मुसाफ़िर मेरी परेशानी समझ गया। उसने मुझे समझाया कि ये ...रुपया किराया
मांग रहा है।
मैंने साथी मुसाफ़िर से कहा - बड़ी कड़क आवाज़ है। मुझे लगा जैसे उधार की वसूली कर
रहा है।
मेरा सफ़र लंबा था। और मुझे ज्यादातर हरियाणवी मुसाफिरों के बीच बैठना था। कान के
पर्दे इस लट्ठमार भाषा के आदी नहीं रहे। तभी एक बुज़ुर्ग की नसीहत याद आई - सर दिया
ओखली में तो मूसल का क्या डर? मैं उनकी भाषा को एन्जॉय करने लगा। और फिर मेहनतकश लंबे-चौड़े हरियाणा के बंदो, लहलहाते खेतों और जगह-जगह, बीज और ट्रैक्टरों
के बिक्रय केन्द्रों को देख कर दिल खुश हो गया।
सिरसा तक पहुंचते-पहुंचते मुझे मज़ा खासा आने लग गया। सिरसा से डबवाली और चौटाला
होते हुए जब मैं संगरिया पहुंचा तो मुझे हैरानी हुई कि मैं टूटी-फूटी हरियाणवी बोल
रहा हूं। हर प्रदेश की भाषा में कुछ न कुछ ऐसी कशिश होती है कि जो अन्य प्रदेश के लोगों
को अपने रंग में रंग लेती है। हां, शुरू में कुछ अजीब ज़रूर लगता है। और फिर हरियाणवी तो हिंदी के बहुत क़रीब है। मेरठ, मुज़फ्फरनगर आदि इलाकों
से सरकारी काम से लखनऊ आने वालों के श्रीमुखों से अक्सर मैंने ऐसी ही भाषा सुनी हुई
थी। बस बोलने के अंदाज़ में थोड़ा फ़र्क ज़रूर था।
मैं दो दिन संगरिया रहा। वापस आया तो कई दिन हरियाणवी लहज़े में ही बात करता रहा।
बड़ी मुश्किल से लखनऊ के रंग में लौटा। आज भी जब कभी दिल्ली जाना होता है तो वहां की
हर गली में हरियाणवी बोलते हुए कई लोग मिलते हैं। बहुत मज़ा आता है।
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05-05-2017 mob 7505663626
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भाषा /बोली किसी भी प्रान्त की हो वो जुबान दारो की भाषा है लेकिन जिसके मुंह में जुबान नही होती या उसे उपयोग करने की सिमित आज़ादी हो वो भी बोलते है हाथो के/नैनों के इशारों से नई बहु पहले पहले पायल और चूड़ी की झंकार से बहुत कुछ कह जाती थी नटत रीझत खिज़त देन कहो मुस्कात भरे भवन में करे नयनो से सौ बात
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