- वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों हम बच्चे
थे। हमारे घर एक बाबा आये। घनी और लंबी सफ़ेद दाढ़ी। और घुटने तक लटकते बाल। गेरुआ वस्त्र।
बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं। मस्तक की लकीरों
से ही भूत-वर्तमान और भविष्य पढ़ लेते हैं। इनका कहा कभी झूठ नहीं हुआ।
हमें देखते ही बाबा
बोले - यह अत्यंत वीर बालक है। अपार विद्या अर्जित करेगा। बहुत उच्च पद पर आसीन होगा।
मां बहुत खुश हुई।
बाबा को गर्मा-गर्म बेसन का हलवा खिलाया। दक्षिणा के तौर पर सवा पांच रूपया भी दिया।
बाबा के इस कथन से
हमें घर में स्पेशल स्टेटस प्राप्त हो गया। उन दिनों हम सातवें दर्जे में थे। संयोग
से छमाही परीक्षा हम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। मां की ख़ुशी की सीमा न रही - बाबा
की भविष्वाणी सच होनी शुरू हो चुकी है।
इधर हम भी निश्चिंत
हो गए। बाबा के कथनानुसार हमारा बड़ा आदमी बनना तय है। अब पढ़ना-लिखना मिथ्या है। सुबह
से शाम तक खेलना-कूदना, झगड़ना और चश्मे का टूटना। इसी बहाने बाजार जाकर चश्मा बनवाना।
मां बहुत खुश होती थी। यह ले कुछ पैसे और। बाज़ार जा रहा है तो उधर सिनेमा भी देखते
आना।
परिणाम यह हुआ कि आठवीं
कक्षा में एक विषय में फेल हो गए। परंतु हमें प्रमोशन मिल गया। यानि फेल होते-होते
बचे। लेकिन मां फिर भी खुश थी - बेटे को बड़ा होकर बड़ा काम करना है, अभी तो छोटा है।
सिफ़ारिश से नवें दर्जे
में एडमिशन मिला। लेकिन हम न सुधरे। दिमाग में घुसा हुआ था कि बड़ा आदमी तो बनना तय
है। परिणाम फिर ख़राब आया। एक बार हाई स्कूल में फेल गए और फिर इंटरमीडिएट में। पिता
जी ने अफ़सोस जताया कि घर की प्रगति दो साल पीछे हो गयी। अब मां को भी लाल में अवगुण
दिखने लगे। पिताजी तो पहले से ही ढकोसला मानते थे बाबाओं की भविष्यवाणी को।
इधर हमें भी अक़्ल आई।
खुद को पढ़ाई पर फ़ोकस किया। इंटर किया और फिर बीए। फिर एमए करने यूनिवर्सिटी पहुंचे।
सुंदर-सुंदर बालिकायें देख कर मन हर्षित हुआ। हस्तरेखा विज्ञान की एक पुस्तक ले आये।
फ़र्ज़ी ज्योतिष बन लड़कियों के हाथ देखने शुरू किये।
उस ज़माने में हर लड़की
का प्रथम और अंतिम प्रश्न यही होता था कि ब्याह का योग है कि नहीं। उन दिनों लड़की रंग-रूप
और कद-बुत से कैसी ही क्यों न हो, निन्यानबे फ़ीसदी का ब्याह हो ही जाया करता
था।
लेकिन हम अपने भविष्य
को लेकर आशंकित रहने लगे। तेरा क्या होगा बिल्लू? हमें ब्याह की नहीं
नौकरी की चिंता थी। क्या कहीं परचून की दुकान लगानी होगी?
भले ही हम द्वितीय
श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे, लेकिन थे हम औसत दर्जे के विद्यार्थी। कभी-कभी
हमें खुद पर आश्चर्य होता था - यार, पेपर तो बकवास दिया
था। पास कैसे हो गए?
इसके दो में एक कारण
हो सकते था। परीक्षक हमारी जैसी औसत बुद्धि का रहा या हमारी लेखन शैली से प्रभावित
हुआ।
यह नियति का खेल था
कि बिजली विभाग में बाबू की वैकेंसी निकली। जेब में पैसे नहीं थे। एक मित्र हमें फॉर्म
दे गए। दूसरे ने फीस भर दी। और तीसरा, हमें डांट-डपट कर बाबूगिरी
पढ़ा गया। वो पहले से ही कहीं बाबू था। और हमने बाक़ायदा एग्जाम पास किया।
इसके बाद भी कई मौके
आये जब हमने सोचा कुछ और हुआ कुछ और। नियति में यही लिखा था। लेकिन हाथ पर हाथ रख बैठे
रहने से कभी कुछ हासिल नहीं हुआ। जब-जब हम संतुष्ट होकर बैठे हमें नुकसान हुआ। जब-जब
कर्म किया, फल मिला, भले मनवांछित नहीं।
ज़िंदगी के छियासठ पतझड़
देखने के बावजूद हमने सपने देखने नहीं छोड़े। अभी कल ही एक कम्प्यूटर 'एप' ने हमें अठानवे साल
तक जीने का प्रमाणपत्र दे दिया। लंबी आयु तो हमारी हस्तरेखा भी बता रही है। लेकिन हमें
हैरानी इस पर है कि हमारा अंत चीन में बताया गया। हम चीन में क्या कर रहे होंगे?
एक मित्र ने कहा कि हो सकता है कि तब हम चीन में भारत के राजदूत हों। फर्श से अर्श
पर पहुंचते कोई देर थोड़ी लगती है। लेकिन हमें संदेह है। बहरहाल, हमने चीनी भाषा सीखनी
शुरू कर दी है।
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Published in Prabhat Khabar dated 08 May 2017
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