-वीर विनोद छाबड़ा
आजकल ७५वां जन्मदिन
मनाने की धूम है।
हम भी कोई साल भर पहले
एक ७५वीं सालगिरह में शरीक हुए थे। वो पेशे से कपडे के थोक व्यापारी हैं। अथाह धन दौलत
और साधनों के मालिक हैं। भरा-पूरा संयुक्त परिवार है। आये दिन किसी का जन्म दिन,
किसी का मुंडन और किसी की छठी। ज़बरदस्त जश्न होता है।
भगवान के बड़े भक्तों
की सूची में होने का दावा करते हैं। हर साल बड़े बाजे-गाजे के साथ लगातार तीन दिन भगवान
भजन करते हैं। फिर भोग के नाम पर शानदार दावत। वो बात अलग है कि पड़ोसियों की तीन दिन
तक नींद हराम रहती है। इनमें कई दिल के मरीज़ भी हैं। लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं।
भगवान सबकी ख़ैर लेंगे।
हमको सौभाग्य प्राप्त
है कि उनकी पचासवीं भी अटेंड की थी। एक शानदार गिफ़्ट लेकर गए थे। उनके एक करीबी ने
बताया कि वो बहुत नाराज़ थे, उन लोगों से जो फूलों के गुलदस्ते लेकर आये थे। भनभना रहे थे
कि इनका क्या करूं? सर पर मारूं? तीस-चालीस रुपए के
फूलों के गुच्छे के स्थान पर अच्छा होता कि ग्यारह या इक्कीस रूपए रख दिए होते।
ऐसे ही कुछ फूलवालों
को हम भी जानते थे। उनको मैंने आने वाले सालों में उनके परिवार में होने वाले जश्नों
में नहीं देखा। सब छांट दिए गए।
कुछ भी हो करीबी होने
के कारण उनके परिवार में आयोजित हर प्रोग्राम में निमंत्रित रहे। कभी नकदी दी तो कभी
चमकीली पन्नी में लिपटा बड़ा सा गिफ्ट।
हां, तो बात ७५वीं वर्षगांठ
की हो रही थी। हम दूसरे शहर में थे। वहां का प्रोग्राम कट-शार्ट कर हम ऐन मौके पर वापस
पहुंचे।
उस दिन बुधवार था।
साप्ताहिक बंदी के कारण मार्किट बंद थी। टाइम बिलकुल नहीं था। सो फूलों का बढ़िया सा
बुके लिया और चल पड़े सपरिवार।
वो ऊंचे डायस पर बादशाहों
वाली शानदार कुर्सी पर विराजमान थे। बेचारी पत्नी दो हाथ पर छोटी कुर्सी पर एक बड़ा
सा बैग लेकर बैठी थी। नकदी वाले लिफ़ाफ़े भर रही थी। हमने उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेंट
दिया।
उन्होंने बड़े मुर्दा
अंदाज़ से कहा - धन्यवाद।
हमें हैरानी हुई। अभी
अभी तो ये शख्स कितना प्रफुल्लित था। हमें ही देख कर क्यों चेहरा मुरझाया?
ओह हो! अब समझा। तभी
हमें पच्चीस साल पहले की घटना याद आ गयी। फूल की जगह ग्यारह या इक्कीस…हे राम। अब क्या करूं?
फिर सोचा - कोई बात
नहीं। दो-चार दिन बाद सही। चचा को बढ़िया गिफ्ट भेंट करूंगा । पश्चाताप हो जायेगा। बरसों
पुराने संबंध हैं। इतनी जल्दी न टूटने वाले।
लेकिन ये हो न सका।
कभी यहां जाना, तो कभी वहां। कोई न कोई वज़ह बनती रही कि उनके घर गिफ्ट लेकर
जा न सके।
एक दिन पत्नी ने कहा
- छोड़ो भी। बुढ़ऊ के पास बहुत कुछ तो है। आपके गिफ़्ट की क्या अहमियत उनके लिए?
फिर कौन याद रखता है कि कौन फूल-पत्ती लाया था और कौन गोभी। इतना कुछ दिया है।
अभी न जाने कितने जन्मदिन और मुंडन होने हैं। सबको रिटर्न देते हैं, हमें तो कभी नहीं दिया।
उस दिन वो पार्क में
टहलते मिले। बोले कि बुढ़ौती में पैदा लड़के की शादी है। फिर बहुत ज़ोर देकर कहा - तिलक,
शादी और रिसेप्शन तीनों में सपरिवार ज़रूर आना है। आज-कल में न्यौता पहुंच जाएगा।
हमने वादा किया - जी
दौड़ कर आएंगे।
फिर बड़ी शिद्दत से
न्यौते का इंतज़ार किया। प्रोग्राम बनाया कि हर फंक्शन में अलग ड्रेस पहननी है।
और न्यौता आ गया। पत्नी
बोली - तुम्हारे प्यारे चाचाजी का कार्ड आया है। अब सिर्फ एक ही सूट पहनना। सिर्फ रिसेप्शन
का बुलावा है। इससे अच्छे पड़ोसी त्रिवेदी जी हैं, तीनो फंक्शन का बुलावा
है।
पत्नी की वाणी में
खासा तंज था। मुझे ७५वीं में सिर्फ़ बुके ले जाने का खामयाज़ा भुगतना पड़ा। 'करीबियों' की लिस्ट से छांट कर
सिर्फ़ 'जान-पहचान' वालों की लिस्ट में डाल दिए गए।
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