Saturday, May 27, 2017

किराएदार

- वीर विनोद छाबड़ा
मैंने पूछा - भाई साहेब, सुना है आपका मकान फिर खाली है।
वो बोले - हां। कोई अच्छा किरायेदार हो तो बताइयेगा।
मैंने कहा - है तो।
उनकी आंखें चमकी - क्या है वो? मेरा मतलब, उसकी जाति और धर्म क्या है?
मुझे मालूम था कि वो कैसा किरायेदार चाहते हैं। मुसलमान नहीं हो। हिन्दू ही चाहिए। और वो भी ब्राह्मण। गोश्त न खाता हो। सिगरेट का धुआं न उडाता हो और बोतल का शौक़ीन न हो। जबकि मकान मालिक वो खुद इन सबके बेहद शौक़ीन हैं। लेकिन किरायेदार के लिए पाबंदिया हैं। उसे सात्विक बनाने का बीड़ा जो उठा रखा है। शायद यही वज़ह है कि उनके घर किरायेदार छह महीने से ज्यादा टिकता नहीं।
बहरहाल, मैंने कहा - इस बार आपके मन मुताबिक किरायेदार है। खांटी वेजीटेरियन। समस्त प्रकार के दुर्वसन से दूर, बहुत दूर। सौ फीसदी टिकाऊ।
वो उछल पड़े - अच्छा। क्या करता है?
मैंने कहा - अच्छी जगह पर है। वेतन भी अच्छा है। पत्रकार हैं। वर्किंग जर्नलिस्ट। स्थाई नौकरी है। वो बात अलबत्ता दूसरी है कि अख़बार बंद हो जाए। लेकिन पत्रकार है, बेकार नहीं बैठता, कहीं न कहीं से खाने का जुगाड़ बैठा लेगा।
वो एकदम से बिदक गए - न भैया। हमें खखेड़ नहीं चाहिए। देखो, अब मुसलमान नहीं होने के साथ-साथ यह भी जोड़ लो कि वो पत्रकार न हो और वकील भी नहीं। और हां पुलिस वाला भी न हो। सचिवालय या उसके जैसे ऐसे ऑफिस में नौकर न हो जहां पोस्टिंग परमानेंट हो। बैंक वाला चलेगा। पर फैमिली वाला न हो।
कुछ क्षण शांत रहने के बाद दबे स्वर में बोले - मेरी तो इच्छा है कि पढाई करने आई लड़कियां को दूं। पढाई के बाद घर वापस चली जातीं हैं। उनके मां-बाप को उनकी शादी की फ़िक्र होती है। लेकिन, श्रीमतीजी नहीं मानतीं। उनको डर है कि लड़कियों के बॉय फ्रेंड होते हैं। घर में भी जवान बेटी है। न बाबा न!
मुझे याद आता है कुछ साल पहले का वो ज़माना। जात-पात और हिन्दू-मुसलमान का ज़माना तो वो भी था। लेकिन थोड़ी न-नुकुर के बाद लोग तैयार हो जाते थे।

हमारे एक ब्राह्मण मित्र तो चाहते थे कि किराएदार हिंदू हो या मुसलमान, कोई हो चलेगा, मगर शर्त है कि  नॉन-वेजीटेरियन हो। रोज़ न सही हफ्ते में एक बार मुर्गा-मट्टन ज़रूर बनता हो। एक-आध कटोरी भी ज़रूर भिजवा दिया करे। न भी भिजवाये तो महक तो आये ही। उसी से दिल बहला लेंगे। बोतल और धुआं धक्कड़ का शौक़ीन तो बहुत ही अच्छा है। जुआड़ी होने पर दस परसेंट किराये में छूट। दरअसल, उन्हें विश्वास था कि जुए में उसे हरा कर इस छूट की रकम को वसूल लेंगे।
इसके साथ ही मुझे अपना वो मित्र याद आता है, जो त्यौहार के दिनों सपरिवार गांव वाले घर जाता था तो उसका मुसलमान किरायेदार रोज़ शाम उसके द्वारे चिराग़ जलाया करता था। ईद-बकरीद और होली-दीवाली सांझे त्यौहार हुआ करते थे।

पुराने लखनऊ में तो बहुत से हिन्दू रोज़े से रहते थे और मुहर्रम के जुलूस छाती पीटते चलते। मजलिसों में शिरकत करना तो आम बात होती थी। होता तो अब भी है। मगर, अपवाद स्वरूप।
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4 comments:

  1. very nice vinod ji. keep it up. www.topeshkatongue.com

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 30 मई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आदरणीय ,आपकी रचना एक हास्यास्पद व्यंग होते हुए भी विचारणीय है अतिसुंदर ,आभार। "एकलव्य"!

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  4. व्यंग में सरलता का पुट समाज की सोच को उघाड़ता हुआ। बधाई।

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