Monday, May 22, 2017

उन्होंने पत्र को ही लेख बना दिया

- वीर विनोद छाबड़ा
पत्र लेखन से संबंधित मुझे एक किस्सा याद आ रहा है ।
बात १९८८ की है। क्रिकेट के 'डॉन' सर डॉन ब्रैडमैन २७ अगस्त को ८८ साल के होने जा रहे थे। मैं डॉन का ज़बरदस्त फैन था। उन पर कई लेख लिख चुका था। लेकिन इस बार इस कुछ अलग हट लिखना चाहता था। मैंने विषय चुना उनकी आख़िरी पारी का। इसमें वो शून्य पर आऊट हुए थे। अगर चार रन बना लेते तो उनका टेस्ट एवरेज सौ हो जाता।
लेकिन क्रिकेट तो महान अनिश्चिताओं का खेल है। होता वही है जो नियति में बदा होता है।
इरादा किसी स्थानीय अख़बार में देने का था। लेकिन फिर सोचा, अभी समय है, बाहर भेज दूं, किसी बड़ी खेल पत्रिका को।
उन दिनों इंदौर से एक प्रकाशित होती थी - 'खेल हलचल', खेल के विषय में एकमात्र हिंदी साप्ताहिक। मुझे बहुत पसंद थी। यह 'नई दुनिया' समाचार समूह का प्रकाशन था। मैंने उन्हें लेख भेज दिया।
चूंकि उन्हें पहली बार रचना भेज रहा था, इसलिए साथ में एक पत्र नत्थी किया। पत्र में प्रथमता अपना परिचय दिया। तदुपरांत लेख की महत्वत्ता के संबंध में विस्तार से लिख दिया। मुझे लगा कि पत्र कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। फिर सोचा, जाने दो। संपादक जी को तो लेख से मतलब है। मर्ज़ी होगी तो पत्र पढ़ेंगे अन्यथा रद्दी की टोकरी तो हर संपादक के बगल में रखी ही रहती है।
बहरहाल, कुछ दिनों बाद लेख प्रकाशित हो गया। लेकिन मुझे सदमा लगा। लेख नहीं छपा था, बल्कि मेरा पत्र लेख छपा हुआ था, लेख के रूप में।
मैंने फ़ौरन संपादक जी को नाराज़गी भरा पत्र लिखा। कोई जवाब नहीं आया। दो-तीन बार स्मरण भी कराया। तब भी कोई असर नहीं पड़ा।
झल्ला कर मैंने अपने पत्रकार मित्र विजय वीर सहाय से बात की। वो 'स्वतंत्र भारत' में फीचर देख रहे थे।
उन्होंने कहा - इसमें परेशान होने वाली क्या बात है? अरे, उनको लगा होगा कि पत्र में तुमने ब्रैडमैन के बारे में ज्यादा बेहतर लिखा है। इसीलिए इसे उन्होंने छाप दिया और लेख फाड़ रद्दी की टोकरी में फेंक दिया होगा।

उस दिन मुझे पत्र लेखन की अहमियत समझ में आई। पत्र लेखन भी एक विधा है। आखिर लेखन की शुरुआत भी मैंने पत्र लेखन से की थी। बहरहाल, मैंने भविष्य में लेख के साथ जब भी पत्र रखा तो बहुत संक्षेप में लिखा ताकि सम्पादक जी उसे ही लेख समझने की भूल न कर बैठें।
इस लेख से जुड़ी एक और छोटी सी कहानी भी है। कुछ दिनों के बाद 'स्वतंत्र भारत' के वाराणसी एडीशन में मैंने अपना यह लेख छपा हुआ देखा। लेकिन सदमा यह लगा कि लेखक मैं नहीं कोई और था। मैंने तुरंत साक्ष्यों सहित लिखित शिकायत की। याद पड़ता है तब वीरेंद्र सिंह जी मुख्य संपादक थे। उन्होंने छान-बीन हुई। पता चला कि वो बंदा बनारस एडीशन में सहायक संपादक है। उसे लखनऊ बुलाया गया। पहले तो उसने इंकार किया कि उसने चोरी की है। लेकिन जब उसे मैंने 'खेल हलचल' में प्रकाशित लेख दिखाया गया तो उसने माफ़ी मांग ली।

मेरा उद्देश्य उसे गलती का अहसास कराना था। संपादक वीरेंद्र सिंह जी के कहने पर मैंने शिकायत वापस ले ली ताकि उसकी नौकरी बची रहे।
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