- वीर विनोद छाबड़ा
मैंने 1947 के विभाजन की
त्रासदी नहीं देखी। करीब साढ़े तीन साल बाद पैदा हुआ। होश संभाला तो बड़े-बुज़ुर्गों को
संघर्ष करते देखा।
उन्हीं के मुंह से सुना
कि विभाजन क्या था? किंतना दर्द दिया उसने? उसका परिणाम अभी
तक भुगत रहे हैं सभी। सबने घर तो खो ही दिया था। कई लोगों के परिवार बिछुड़। काम-धंधा
और खेत खलिहान भी हमेशा के लिए छूट गए।
अब जो खाने को मिला पेट
में लिया। जो काम मिला कर लिया। ये न देखा छोटा है या बड़ा। जो वहां साहूकार थे तो यहां
किसी साहूकार के यहां मुंशी हो गए। उन दिनों दिल्ली के कुतब रोड स्थित के मकान में
मेरे दादाजी एक बहुत बड़े परिवार के साथ रहते थे। यहां पहले कोई मुस्लिम परिवार रहता
था जो फ़साद से परेशान होकर पाकिस्तान चला गया था। सरकार ने यहां अस्थाई रूप से रहने
की परमीशन दे दी थी।
इस घर की ड्योढ़ी बहुत चौड़ी
और लंबी थी। यहीं बाजार बंदी के दिन सुबह से शाम तक को जमावड़ा होता था। सिर्फ और सिर्फ
व्यापार की बातें होती थीं। उसमे मिली सफलता-असफलता का आंकलन का साझा होता था। एक-दूसरे
की मदद की गुंजाईश की तरकीबें निकाली जाती थीं।
मुझे पता चला कि पार्टीशन
से पहले ये सब धन्ना सेठ थे। अब फकीरी से ऊपर उठने को कोशिश कर रहे थे। अपनी मेहनत
और जुगाड़ के दम पर। सबने सदर बाज़ार में छोटी छोटी दुकानें खोल ली थीं। कुछ लोग मुकद्दर
के धनी रहे। वो 1947 से पहले भी सेठ थे और
1947 के बाद भी। ऐसे कुछ लोग करोल बाग़ में जम गए।
एक दिन एक आदमी आया। सबने
उसे घेर लिया। पास की गली में रहने वाले सारे शरणार्थी भी वहां जमा हो गए। सब उन्हें
शाहजी कह रहे थे। उसने साफ़-सुथरी सलवार-कमीज़ पहनी हुई थी। सर पर चमकती तुर्रेदार पगड़ी।
चेहरा सुर्ख लाल। वो कोई बड़ा आदमी मालूम होता था।
वो बता रहा था कि वो बड़ा
कैसे बना? बात-चीत से पता चला कि विभाजन से पहले वो अढ़ाती था। सूद पर पैसा
भी उधार देता था। विभाजन ने उसका सब कुछ छीन लिया। घर-परिवार सब कुछ। एक धेला तक नहीं
था उसके पास जब उसने 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में
कदम रखा था। बिलकुल टूट चुका था। रिफ्यूजी कैंपों में रहा। रूखा-सूखा खाया। फिर एक
अड़ाती के यहां बोरियां उठाने की मजदूरी करने लगा। एक दिन उसे एक पुराना कर्जदार मिल
गया। उसने उधार के कुछ पैसे लौटा दिए। उस पैसे से उसने चीनी का एक बोरा खरीदा। बाजार
भाव से कुछ कम दाम पर फुटकर में
चीनी बेची। खाली बोरा रख लिया। उसने फिर एक चीनी की
बोरी खरीदी। बाजार भाव से कम पर फुटकर में चीनी बेच दी। बोरा खाली हो गया। शाम तक उसने
चार बोरियां खरीदी और बेची। उसे घाटा नहीं हुआ। बल्कि फ़ायदा यह हुआ कि चार खाली बोरे
अलग से बेच दिए। अच्छे पैसे मिल गए। उन दिनों
खाली बोरियां की बड़ी डिमांड थी। पैकिंग के लिए टाट और बोरियां नहीं मिलती थीं।
धीरे-धीरे उसका सितारा बुलंद हुआ। उसका खोया परिवार उसे तीन साल बाद सहारनपुर के एक
रिफ्यूजी कॉलोनी में मिल गया। उसने अपना खोया हुआ आर्थिक और सामाजिक रुतबा फिर से हासिल
कर लिया। बल्कि पहले से कहीं ज्यादा ऊंचा।
कुछ अपवादों को छोड़ कर, साठ के दशक के
अंत तक विभाजन से उजड़े तकरीबन सारे परिवार अपने पुराने रुतबे को हासिल कर चुके थे, शाहजी की तरह सब
शाह जी हो चुके थे। उन्हें कोई रिफ्यूजी नहीं कहता था। ज़िंदा रहने और अपने पैरों पर
खड़े होने की अदम इच्छा, और मेहनत से दूर न भागने
के ज़ज्बे ने सबको अपने पैरों पर खड़ा कर दिया।
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06-05-2017 mob 2017 mob 7505663626
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Lucknow - 226017
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