-वीर विनोद छाबड़ा
जब भी भूचाल आता है
या दुनिया के किसी भी हिस्से में इसके आने की खबर पढता हूं तो मुझे 'भूचाल आंटी'
याद आती है।
यह मेरी चाची थीं।
उन्हें आंटी कहलवाना पसंद था। इसलिए उन्हें हम आंटी कहते थे। पचास के दशक का अंत और
साठ के दशक की शुरुआत का दिल्ली। चाची एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती थीं और चाचा भी टीचर
थे। उनके आने-जाने का रास्ता एक ही था। बस प्यार हो गया। चाचा साईकिल के कैरियर पर
बैठा कर उन्हें रोज़ाना घर तक छोड़ते थे। अड़ गए चाचा कि शादी करूंगा तो इसी से। संयोग
से पार्टीशन पूर्व हमारे इलाके भी आसपास के थे। हम मियांवाली की तो वो डेरा इस्माईल
खान के। और शादी हो गयी। उनके चार बच्चे हुए, तीन लड़कियां और एक
बेटा।
दिल्ली के बाड़ा हिन्दू
राव की चिमनी मिल गली के उस मकान के आंगन में सुबह पांच बजे अंगीठी सुलग जाती। धुआं-धुआं
सा घर हो जाता। सभी को उठ जाना पड़ता। अगले दो घंटे चाची का राज। यह उठाया, वो पटका। इसको डांटा
उसको थप्पड़ रसीद किया। चाचा से लंबी बहस भी की। बच्चों की धमाचौकड़ी अलग से। मानों भूचाल
सा आ गया हो।
दो-चार दिनों के लिए
लखनऊ से दिल्ली आये हम सब बच्चे मूक दर्शक की भांति सब देखा करते। कभी कभी लगता था
कि यह सब करमुक्त मनोरंजन हो रहा है हमारा।
फिर एक-एक कर सब बिदा
होते। सबसे पहले चाचा साइकिल उठा कर स्कूल को निकलते। फिर बच्चों की बस आ जाती। सबसे
छोटा राजू। अभी स्कूल जाने लायक नहीं था। चाची स्कूल जाने लगती तो दूसरी मंज़िल पर रहने
वाली सास को संबोधित करते हुए एक ऊंची आवाज़ लगाती - भाभी मैं वेंदी पई हां। (अर्थात
मैं जा रही हूं)
इसका मतलब यह होता
कि राजू का ख्याल रखना।
अगले छह-सात घंटे घर
में बड़ी शांति रहती। पहले लड़कियां स्कूल से लौटतीं और फिर चाचा। और थोड़ी देर बाद चाची।
बस शुरू हो जाते भूचाल के छोटे-मोटे झटके जो रात देर तक जारी रहते। कभी बच्चे आपस में
लड़ते तो कभी चाची उन्हें छुड़ाने के लिए डपटती। रसोई में काम करते करते बच्चों को जोर
जोर से पढ़ाया भी करती थीं। चाचा अख़बार पढ़ रहे होते थे। उन्हें बहुत डिस्टर्बेंस होती।
वो कहते थे - जरा धीरे से बोलो। बस इसी बात पर भूचाल आ जाता।
चाची खाना बहुत अच्छा
बनाती थी। हम जब तक दिल्ली में रहते थे कोशिश होती थी चाची के हाथ का बना खाएं और वो
खिलाती भी बड़े प्यार से थीं। स्कूल जाने से पहले हमारे हाथ में चवन्नी रखना भी नहीं
भूलती थी। जब हम लखनऊ लौटते थे तो पांच का नोट और ढेर सारा गाज़र का हलवा देना नहीं
भूलती थीं। हमें हैरानी होती थी कि यह बनाया कब। वो बताया करती थीं कि रात को जब तुम
सब सो रहे होते थे तो बनाती थी।
हम बच्चों की डिमांड
पर मेरे पिता जी ने इस पर एक कहानी लिखी थी - भूचाल आंटी। यह टाइम्स ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन
'पराग' प्रकाशित हुई थी और शमा पब्लिकेशन के उर्दू 'खिलौना' में भी।
अब बहुत कुछ बदल गया
है। चाची नहीं रही। ट्रेजडी देखिये कि हमेशा भूचाल का अहसास कराने वाली चाची ने ज़िंदगी
के आख़िरी तीस साल बहुत शांति से गुज़ारे। उन्हें डि-जनरेशन नामक बीमारी ने घेर लिया
था। इन सालों में वो बिस्तर पर लेटी रहीं। बेहद कष्टप्रद और दर्द भरा जीवन। जब भी हम
दिल्ली जाते थे तो हमसे हंस कर कहा करती थीं कि मौत का इंतज़ार कर रही हूं। बड़ी सेवा
की चाचा ने। चाची चली गयीं तो चाचा उन्हें भूले नहीं। जब तब मोबाईल पर बात होती थी
तो चाचा उनकी बात ज़रूर छेड़ते रहे। अब तो चाचा भी नहीं रहे। पिछली जनवरी में वो चाची
के पास चले गए।
उनके बेटे से बात होती
है कभी कभी। लेकिन दिल दुखता है।
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27-05-2017 mob 7505663626
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Lucknow - 226016
हँसते हँसते रूला दिया अंत में ... :(
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