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वीर विनोद छाबड़ा
आज हम अपनी नई स्कूटी सुंदरी को टहलाने बाहर निकले। देर शाम का वक़्त था। चिराग़
जल चुके थे।
हमने भूतनाथ मार्किट पर एक दुकान के सामने स्कूटी रोकी। कायदे से लॉक किया। बार
बार पीछे मुड़ कर देखा। डर लग रहा था,
नई-नई है। पहली बार बाहर निकली है और वो भी बिना नंबर की। चोरी
हो गयी तो कसूरवार हमीं होंगे कि बिना नंबर की गाड़ी लेकर सड़क पर निकले ही क्यों? और फिर सामने अधिकृत
पार्किंग पर क्यों नहीं खड़ी की?
बहरहाल, जल्दी से सामान लेकर बाहर निकले। चाबी लगाई। लेकिन हैंडिल लॉक नहीं खुला। दायें-बायें
कई यत्न किये। मगर सब निष्फल साबित हुए। शायद है लॉक ख़राब हो गया है। अभी परसों ही
तो खरीदी है।
थोड़ी दूर दो लड़के खड़े थे। उन्हें इशारे से बुलाया। कृपया हेल्प करो। वो भी बहुत
देर तक दायें-बायें चाबी घुमाते रहे। मगर कोई फ़ायदा नहीं हुए। यह कह कर निकल लिए कि
कंपनी वालों को फोन करो।
हमने जेब में हाथ डाला। मोबाईल भी नहीं था। घर भूल भूल आये थे। तभी एक लड़की बगल
में आकर रुकी। ठीक मेरी वाली ही स्कूटी। मोबाईल पर किसी से बात करने लगी।
हमने उसे टोका - बेटी, तुम्हारी जैसी प्लेज़र मेरी भी है। लॉक नहीं खुल रहा। प्लीज़ हेल्प। उसने फ़ौरन मोबाईल
बंद किया। हमने उसे चाबी दी।
लड़की ने स्कूटी का निरीक्षण किया। फिर बिगड़ गयी - यह प्लेज़र नहीं एक्टिवा है।
हमने गौर से देखा। काटो तो खून नहीं। मेरी प्लेज़र स्कूटी तो बगल में खड़ी थी और
मैं एक्टिवा से दो-दो हाथ कर रहा। दरअसल, दोनों ही स्कूटी बिना नंबर की थीं। एक्टिवा तो पूरी लाल थी और
मेरी वाली का पिछवाड़ा लाल था। स्ट्रीट लाईट न होने के कारण उस स्थान पर अंधेरा सा था।
इस कारण हम समझ नहीं पाये। यह तो अच्छा हुआ कि एक्टिवा के मालिक ने हमें नहीं देखा, वरना वो हमें चोर ही
समझ बैठता। और हो सकता है हम पिट भी जाते। हमने लज्जित होकर सॉरी बोला।
लड़की हंस दी - आप भी न अंकल...और वो फिर मोबाईल मिलाने लगी।
हमने उसे दो धन्यवाद दिए। एक, इसलिये कि उसने हमारी हेल्प की। और दूसरा, इसलिए कि उसने हमारी
सफ़ेद फ्रेंच कट के बावजूद हमें अंकल कहा, दादाजी या बाबाजी नहीं।
शायद यह स्ट्रीट लाईट न होने का फ़ायदा था।
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