-वीर विनोद छाबड़ा
सन १९५७ में रिलीज़ हुई थी मुंबई के मिनर्वा थिएटर में गुरुदत्त की 'प्यासा'।
व्यवस्था और सत्ता, समाज के अलमदारों और ठेकेदारों,
नेताओं और अफ़सरशाही पर ज़बरदस्त सीधा प्रहार और तंज़ कसती थी ये
फ़िल्म।
इसमें साहिर का एक गाना था - जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
जब ये गाना स्क्रीन पर प्ले हुआ तो सारे दर्शक उठ कर खड़े हो गए। उन्होंने खूब तालियां
बजाईं और जम कर 'वन्समोर' के नारे लगाये।
सिनेमा हाल के प्रबंधक परेशान कि क्या करें। आख़िरकार दर्शकों के बेतरह शोर-गुल
और मांग के दबाव में उन्हें यह गाना दुबारा प्ले करना पड़ा। इतने पर भी दर्शकों का दिल
नहीं भरा। तीसरी बार प्ले करना पड़ा।
याद नहीं पड़ता कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी घटना पहले और बाद में कभी हुई
हो।
'प्यासा' की गिनती सदी की पांच श्रेष्ठ फिल्मों में होती है। सुना है इस गाने को सुन कर
शीर्ष नेताओं में बहुत खलबली मची थी। इसे प्रतिबंधित किये जाने की मांग भी हुई। लेकिन
अंततः सच्चाई को स्वीकार कर लिया गया।
पेश है गाना -
ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हए कारवां ज़िंदगी के
कहां हैं, कहां हैं मुहाफ़िज़ खुदी के
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
ये पुरपेच गलियां, ये बदनाम बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पर तकरार
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियां
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियां
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
ये उजले दरीचों में पायल की छन छन
थकी-हारी सांसों पे तबले की धन धन
ये बेरहम कमरों में खांसी की ठन ठन
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
ये फूलों के गज़रे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख़ फ़िकरे
ये ढलके बदन, ये बीमार चेहरे
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
यहां पीर भी आ चुके, जवां भी
तनोमंद बेटे भी, अब्बा, मियां भी
ये बीवी भी है, और बहन भी है, मां भी
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
मदद चाहती है, ये हव्वा की बेटी
यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी
पयंबर की उम्मत, जुलय खां की बेटी
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कूचे, ये गलियां, ये मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पे उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं.…
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