Monday, December 28, 2015

जीना इसी का नाम है।

-वीर विनोद छाबड़ा
कोई कह रहा है - वो खुशकिस्मत हैं जिनकी पत्नी नहीं है। अगर होती तो दम हो गया होता आपकी नाक में।

यह सुन कर हमें पच्चीस साल पहले सुहागरात का सीन याद आता है। पत्नी ने घूंघट उठाते ही ऐलान कर दिया था कि दूसरों की शादियों में भालू-बंदर नहीं बनोगे। बर्तन साफ नहीं करोगे। ये समाज सेवा बंद। घर में काम क्या कम है.तबसे तानाशाही निर्बाध कायम है।
दो राय नहीं ये कर्फ्यू लगता बहुत ख़राब तो है, लेकिन सच कहूं दोस्त, अच्छे पहलू भी बहुत हैं। कोई तो है जिसे हमारे विलंब से आने पर चिंता होती है। कहती है, दफ़्तर में फलानी से दूरी बना के रहना। सूरत से चिकनी-चुपड़ी मगर अंदर से निरी चुड़ैल है। बातें धर्म-कर्म की, मगर फैशन हेमा मालिनी जैसे। 
पार्टी में जाने से पहले मीनू तय कर देती है। क्या खाना है और क्या नहीं। लौट कर आने पर पूछती है क्या-क्या खाया? और कौन था वहां? क्या बातें हुईं? वो दफ़्तर वाली चुड़ैल तो नहीं थी?
इसके अलावा फ्री में वो ढेर सवाल जो एक मनोचिकित्सक मोटी फीस लेकर पूछता है।
हमें ज़रा सी छींक आती है तो परेशान खुद भी होती है, हमें भी करती है। यहां नहीं, वहां बैठो। थोड़ी-थोड़ी देर पर माथा और गर्दन छूती है - कहीं बुखार तो नहीं। चलो डॉक्टर के पास। दवा दिला देती हूं। एक डोज़ में भले-चंगे हो जाओगे।
सच, मां की याद आती है। वो भी ऐसा ही ख्याल रखती थी। हमें लगता है ज़िंदगी के एक खास पड़ाव के बाद पत्नी बिल्कुल मां जैसी दिखनी शुरू हो जाती हैं।
सच वो दिन कितना ख़राब होता है जब पत्नी अस्वस्थ होती है। मरघटा सा सन्नाटा है। उसे खाना अच्छा नहीं लगता तो हम भी नहीं खा पाते। मरियल सी वाणी में कहती रहती है - कितनी बार कहा थोड़ा चौका-बर्तन सीख लो। वक्त ज़रूरत काम आएगा...खैर अब थोड़ा-बहुत जैसे-तैसे बना दिया है। खा लेना। नहीं तो कमजोर हो जाओगे। तुम्हें सुबह-शाम बीपी और हाइपरटेंशन की दवा भी खानी है। ये सख़्त सर्दी का सीज़न बड़ा ख़तरनाक़ होता है। तुम ताक़तवर नहीं होगे तो मेरा ख्याल कैसे रखोगे? मेरी चिंता मत करो। मैं जाने वाली नहीं। दवा खा ली है। देखना कल तक ठीक हो जाऊंगी। बच्चे बड़े हो गए हैं। मगर तुम्हारे जैसे नालायक हैं। ध्यान रखना इनका, कहीं उल्टा-सीधा खाकर बीमार न पड़ जायें।

अगले दिन सुबह हम उनको बिस्तर पर नहीं पाते । इधर-उधर भी नहीं है। हम परेशान होते हैं। तभी खिड़की पर नज़र पड़ती है। वो खरामा-खरामा चली आ रही हैं, पड़ोसन से बतियाते हुए। हाथ में दूध की थैलियां और ब्रेड है।
वो ताना मारती है। तुम तो घोड़े बेच कर सो रहे थे। सोचा मैं ही ले आऊं। देर होने पर सब बिक जाता है। अब जल्दी से ब्रश कर लो। चाय चढ़ा रही हूं।
उनकी आवाज़ में पुरानी खनक है। हम आश्वस्त होते हैं कि वो ठीक हैं। काम पर वापस आ गई हैं। और साथ में हम भी पहले जैसे आज्ञापालक बनने की भूमिका में वापस आने के लिए तैयार हैं।
दूर कहीं गाना बज रहा है - जीना इसी का नाम है... 

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Published in Prabhat Khabar dated 28 Dec 2015
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