- वीर विनोद छाबड़ा
मार्च २०१० की बात है। एक एक्सीडेंट हुआ। हमारा बायां कंधा उखड़
गया। डॉक्टर ने कंधा बैठा दिया और जिस्म के साथ पर स्क्रैप बैंडेज से बांध दिया।
दो दिन आराम किया। ऑफिस भी ज़रूरी था। सुबह एक दोस्त की कार की
डिक्की में बैठ जाते। शाम को वो घर वापस पटक देते। हम ठहरे कामकाजी आदमी। शाम देर तक बैठना भी पड़ता था। ऑटो से
आना-जाना शुरू कर दिया।बैग में झूलती हमारी बांह देख कर जनता का सहयोग भी खूब मिला।
लड़कियां आगे रहीं - नहीं, अंकल
आप बैठें। मैं दूसरा ऑटो पकड़ लूंगी।
एक दिन हमने गौर किया कि जिस ऑटो से हम वापस जा रहे हैं, पिछले दिन भी यही था। हमारा स्टॉपेज मुंशी पुलिया दो-तीन सौ
मीटर पहले पड़ता है। फिर वहां से सड़क क्रॉस करके दो मिनट का रास्ता और यह रहा हमारा
घर।
ये सड़क क्रॉस करना अपने आप में बहुत दुरूह कार्य था। आएं-बाएं-शाएं
तेज ट्रैफिक दौड़ता है। सड़क क्रॉस करने के लिए इंतज़ार कभी इतना लंबा हुआ होता था कि
डर लगता था कि ऐसा न हो कि उम्र यूं ही गुज़र जाए। कई बार बीच डिवाईडर पर हम देर तक
फंसे रहे।
उस दिन हम जैसे ही ऑटो से उतर कर सड़क क्रॉस करने को हुए कि एक
बाइकर शाएं से हमें लगभग छूता हुआ निकल गया। हम सन्न रह गया। मौत जैसे बगल से गुज़री
हो। एक क्षण भी इधर-उधर होता तो फेस बुक पर कभी न दिखता।
ऑटोवाला अभी वहीं खड़ा था। वो हमारे पास आया। मेरे कंधे पर हाथ
रखा। पूछा - अंकल ठीक तो हैं न?
हमारी आंखें दहशत से फटी हुई थीं। कंधे पर उसका आत्मीय स्पर्श
और हाल पूछना, लगा ज़िंदगी वापस आ गयी है।
हमने कांपते हुए कहा- हां ठीक हूं।
ऑटोवाले ने कहा - अंकल। बैठिये। उस पार छोड़ देता हूं।
हमारे पास दूसरा विकल्प नहीं था। उसने मुंशी पुलिया से यू-टर्न
लेकर मुझे उस पार उतार दिया। हमने उसे धन्यवाद दिया। इस सेवा के बदले क्या चाहिए ये
पूछ कर हम मानवता और ऑटोवाले बंदे को शर्मिंदा नहीं करना चाहते थे। नाम पूछा तो मुस्कुराया
- काले कहते हैं सब मुझे। जबसे बड़ा हुआ यही नाम सुनता आया हूं। लाइसेंस में भी यही
लिखा है।
हम मुस्कुराये। उसकी पीठ थपथपाई और ख़रामा-ख़रामा घर की ओर चल
दिये। अगले दिन शाम ऑफिस से छूटा तो वो फिर मिला। उसे शायद हमारा ही इंतज़ार था। उसने
फिर मुंशीपुलिया से यू-टर्न लेकर हमें सड़क पार करा दी।
ये सिलसिला दो महीने तक चलता रहा। हम जब भी ऑफिस से निकलता काले
को इंतज़ार करता पाते थे। हमारे बैठने के बाद ही वो ऑटो में बाकी सवारियां भरता। इस
बीच कई मित्रों ने ऑफर दी। लेकिन हम मना कर देता। काले की निस्वार्थ सेवा हमारी आदत
बन चुकी थी।
अब हमारा कंधा पूरी तरह दुरुस्त था। हम ड्राईव भी करने लगे।
समझ नहीं आ रहा था कि इस भलेमानुस काले को कैसे मना करूं!
एक दिन हिम्मत कर ही ली। उसे चाय का ऑफर दिया। उसने मना नहीं
किया।
काले बोला - चलो शुक्र है, वाहे गुरु का। अपना असूल है जी, रोज़ाना एक चंगा काम करो। अब कहीं और देखता हूं।
काले चला गया। हमारी निगाहें अक्सर उसे तलाशती हैं। पर वो कमबख्त
दिखता ही नहीं। न जाने किस एरिया में किसे सड़क पार करा रहा होगा?
---
18-12-2015 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow -226016
No comments:
Post a Comment