- वीर विनोद छाबड़ा
आज दोपहर च्यास लगी। आठ किलोमीटर का रास्ता तय किया। अपने प्रिय मित्र राजन प्रसाद
का दरवाज़ा नॉक किया। वो छत पर बैठे विटामिन-डी का फ्री सेवन कर रहे थे। हमें भी वहीं
बुला लिया। इधर-उधर की थोड़ी गप-शप हुई कि चाय आ गयी।
अंधे को क्या चाहिए दो आंखें। हम धन्य हुए। जोश भी आ गया। सोचा कि आज च्यास पर
डिसकस किया जाए।
इस बीच हमने चाय थामी और राजन जी मुम्टी से ने स्टूल खिसका लाये। हमने चाय उस पर
रख दी। इससे पहले कि हम च्यास का टॉपिक छेड़ते कि राजन जी के स्टूल खिसकाने का दृश्य
स्लो मोशन में हमारे सामने आ गया। ज़रूरत से ज्यादा ही ज़ोर लग रहा था। निसंदेह स्टूल
का वज़न अन्य स्टूल के मुक़ाबले कुछ ज्यादा था।
हमसे रहा न गया। स्टूल को तनिक अपनी और खिसका कर जायज़ा लिया। लेकिन स्टूल खिसका
नहीं। थोड़ा ज्यादा बल देना पड़ा। ख़ानदानी है क्या?
राजनजी मुस्कुराये - हां, पिताजी के ज़माने का
है।
बस फिर क्या था। हम दोनों ही नॉस्टॅल्जिक हो गए। मेरे तक़रीबन हम उम्र हैं राजन।
हम पैंसठ के तो वो चौंसठ के। मेरी ही तरह सरहद पार वाले पंजाबी खानदान से हैं। हम मियांवाली
से तो वो पेशावर से। एक ही बोली बोलने वाले।
राजन बताने लगे - घुटने चलते हुए इसी स्टूल का सहारा लेकर खड़ा होना सीखा था। मेरे
दोनों बच्चे भी इसी स्टूल से सहारे खड़े हुए हैं। अमृतसर और जालंधर के बीच करतारपुर
है। वहां की लकड़ी का फर्नीचर बहुत मशहूर है। पिताजी वहीं से दो स्टूल खरीद कर लाये
थे। तब पिताजी बिड़ला की रूबी जनरल इंश्योरेंस कंपनी में मुलाज़िम थे। बाद में यह कंपनी
नेशनल इंश्योरेंस में मर्ज हो गयी। अमृतसर से जयपुर ट्रांसफर हुआ और फिर दिल्ली। और
फिर लखनऊ के नरही की गली की इस उप-गली में। इस दौरान स्टूल साथ-साथ ही रहे। एक स्टूल
बहन ले गयी - पिताजी की निशानी। यह मेरे पास। बीच से उठाने के लिए डिज़ाईनदार कट भी
है। आज तक दूसरी कील नहीं ठुकी है। हां,
बीच-बीच में पेंट ज़रूर हुआ है। आज भी उतना ही मज़बूत और भारी, लोहा-लाट। छत की मुम्टी
में हिफाज़त से रखा हुआ है।
हम दो बार चाय पी चुके थे। मोबाईल बार-बार पूछ रहा था कि घर कब लौटोगे?
राजन के पास और भी कई आईटम हैं नॉस्टॅल्जिक होने के। बाकी फिर कभी।
---
30-12-2015 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
No comments:
Post a Comment