-वीर विनोद छाबड़ा
बंदे को साठा लगने
को है। बिलकुल निरोग और चुस्त दुरुस्त। नो टेंशन। घरैतिन भी सलामत। अपनी अस्सी प्लस
मां के सुझाये टोने-टुटकों और घरेलू नुस्खों पर अटूट विश्वास रखती है। बंदा सोशल प्राणी
है। इतनी बड़ी दुनिया है। आये दिन कोई न कोई बीमार पड़ता है। बंदा घरैतिन सहित पहुंच
जाता है, हाल-चाल जानने। पूरे तन और मन से। धन बैंक में रखता है। घर पर
रखे तो चोरी का ख़तरा। पुलिस में रपट और फिर दुनिया को पता चल जाये। बुढ़ऊ धनाढ्य भी
हैं।
बहरहाल बात हो रही
है अस्पताल की। आजकल अस्पताल में भर्ती होना स्टेटस सिंबल है। अमीर लोग और जिनको बीमा
कंपनी या सरकार से चिकित्सा व्यय की प्रतिपूर्ति होती है वो तो सर्दी-जुकाम लगने पर
भी लोग भर्ती होते हैं। ऐसे में मिजाज़पुर्सी वालों की भीड़ जुटानी ज़रूरी है। भाड़े पर
सब मिलता है। इसके भी इवेंट मैनेजर हैं न! बीमार को देखने जाइए। लंच, चाय-नाश्ता फ्री। चाय-नाश्ते
में बंद-मक्खन, ब्रेड-पकौड़ा और समोसा। लंच में पूड़ी-कचौड़ी चाइनीज़ व साऊथ इंडियन।
आइसक्रीम और कोल्डड्रिंक भी भरपूर।
एक दिन बंदे को तेज
बुखार आया। घरैतिन के दहेज में आये सारे टोने-टुटके फेल कर गए। हिक़मत भी न चली। उसने
बंदे को एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करा दिया। सबको पता तो चले हम कोई ऐसे-वैसे
न हैं। और फिर इसी बहाने घरैतिन को अपनी ब्याहता बहनों पर भी रुआब झाड़ना है।
जिसकी घरैतिन ढिंढोरची
हो तो ख़बर का पल भर में वायरल होना लाज़मी ही है। हर जगह मोबाईल लगा दिया गया। चित्रण
कुछ ऐसा किया कि आज नहीं तो कल तक रवानगी तय
समझो। स्वतः-स्फूर्त सारा मोहल्ला उमड़ आया। अंतिम बिदाई सा समां। महिलाएं दोपहर की
रसोई निपटा कर बच्चों सहित आ धमकीं और दिन भर पंचायत करती रहीं। बच्चे चिकने फर्श पर
स्किट करते किलकारियां भरते रहे।
शाम के वक़्त दफतर
से घर लौटते सहकर्मी आ जमे। ज्यादातर अंतिम दर्शन के मोड में हैं। अश्रुपूर्ण सांत्वना
दे रहे हैं। ऊपर जाने के बाद किसने देखा कि नीचे कौन और कितनों ने छाती पीटी। बंदे
का ठीक जूनियर भी आया। वो फूल-पत्ती भी लेकर आया था। बड़ा उदास दिखा। मगर बंदा जानता
है कि वो अंदर से वो खुश है। उसे बड़ी उम्मीद है कि बंदे की अंतिम घड़ी है। उसका प्रमोशन
बिलकुल पक्का।
रिवाज़ के मुताबिक सलाह-मशविरे
हैं। क्या खाएं और क्या नहीं? ईलाज की विधियां भी बताईं गयीं। इस मर्ज़
में फलां पैथी सौ टंच कारगर। ढमकाने हकीमजी के हाथ में कमाल का जादू है। दो दिन की
मेहमान मेरी सास के मुंह में एक ख़ुराक गयी नहीं कि सरपट दौड़ने लगी। एक साहब ने अजीबो-गरीब
बीमारियों के किस्से ही सुना डाले। हंसी-ठट्ठा करने वालों की भी कमी नहीं।
यह सिलसिला सिर्फ़ दो
दिन ही चला। आख़िर में सबकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए बंदा निरोग घोषित कर डिस्चार्ज
कर दिया गया। मामूली वायरल फीवर ही तो था। खोदा पहाड़ निकली चुहिया। बंदे ने डॉक्टर
और अस्पताल प्रशासन को शुक्रिया कहा। लेकिन घरैतिन ने मायके को क्रेडिट मायके को दिया।
बोली - आखिर उनका ही टूना-टुटका काम आया। आख़िर में काम 'अपने' ही आते हैं न!
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प्रभात ख़बर में दिनांक
०७ दिसंबर २०१५ को प्रकाशित।
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