-वीर विनोद छाबड़ा
बात १९६९ की है। हम बड़ी बहन की शादी के सिलसिले में दिल्ली में
थे। बाड़ा हिन्दू राव एरिया में फिल्मिस्तान सिनेमा के पास चिमनी मिल गली में मेरे दादा
जी का घर था। शादी वहीं से होनी थी।
शादी ठीक-ठाक निपट गई। सब अपनी-अपनी भूमिका में पास। बहन तारों
की छांव तले सुसराल चली गयी। हम सब थके हारे लेटते ही सो गए।
सोये हुए अभी घंटा भर ही हुआ होगा कि बड़े चाचाजी ने जगाया। सुबह
के क़रीब छह बज रहे थे। बोले - जल्दी चलो। पतीला वापस करना है। स्कूटर के पीछे पकड़ कर
बैठ जाना।
गर्मी के दिन थे। मैंने सिर्फ स्लीवलैस बनियाइन और पायजामा पहन
रखा था। बनियाइन पीछे से थोड़ी फटी भी थी। मैं बोला- ठीक है। शर्ट तो पहन लूं।
चाचाजी स्वभाव से जल्दबाज़ किस्म के शख़्स थे। बोले - छोड़ो यार।
सुबह-सुबह कौन देख रहा है। और फिर दस मिनट में लौट भी आएंगे।
शादी वाला घर था। सब अस्त-व्यस्त पड़ा था। शर्ट भी जाने कहां
होगी? ढूंढ़नी पड़ेगी।
मैं राज़ी हो गया। स्कूटर की पिछली सीट पर उस बड़े से पतीले को
कस कर पकड़ बैठ गया।
सड़क खाली देख चाचा ने ६०-७० की स्पीड पर स्कूटर दौड़ा दी। मैंने
बड़ी मुश्किल से एक हाथ से स्कूटर की गद्दी और दूसरे हाथ से पतीला पकड़ रखा था।
शायद देव नगर का इलाका था वो। चाचा ने स्कूटर के साथ मुझे भी
सड़क किनारे खड़ा किया और एक गली में पतीला लेकर घुस गए। फिर पलक झपकते ही वापस भी आ
गए। चेहरे पर संतुष्टि कि यह काम भी निपटा। स्कूटर स्टार्ट की। इससे पहले कि मैं बैठ
पाता, उन्होंने बड़ा तेज पिकअप लिया और फुर्र हो गए।
मैं पीछे खड़ा चीखता रहा
- चाचाजी रुकिए। रुकिए।
लेकिन जल्दबाज़ चाचाजी कहां रुकने वाले। चंद सेकंड में ही नज़रों
से ओझल हो गए।
मित्रों आप समझ सकते हैं कि उस समय मेरी क्या दशा रही होगी।
तन पर सिर्फ फटी बनियाइन और पायजामा। चेहरे पर उगी झाड़ जैसी दिखती दाढ़ी, जो उस ज़माने
की नई पीढ़ी का शौक था। फूटी-कौड़ी नहीं पास। मोबाइल का युग नहीं था। सुबह का वक़्त होने
के कारण दुकाने सब बंद थी। टेलीफोन भी नही कर सकता था। एक-आध ऑटो को हाथ दिया। मगर
मेरी हालत देख वो रुके नहीं। शायद पागल समझ रहे होंगे।
अच्छी बात यह थी कि रास्ता मुझे मालूम था। पैदल ही चल पड़ा। कोई
देख कर क्या बोलेगा, इसकी परवाह नहीं थी। परन्तु कुत्तों से ज़रूर डर लग रहा था जो
मेरी ओर घूर-घूर कर देख रहे थे।
खैर, पसीने से तर-बतर डेढ़ घंटे में घर पहुंचा। देखा
चाचाजी ज़बरदस्त क्लास चल रही थी। दादाजी, पिता जी और शादी
में आये तमाम बड़े बुज़ुर्ग चाचाजी को घेर कर दनादन मुंहजुबानी 'फायर' कर रहे थे।
चाचाजी से जवाब देते नहीं बन पा रहा था। वो परेशान थे कि ये
बिल्लू (मेरा निक नेम) कहां गिर गया? ज़मीन खा गयी या आसमां निगल गया?
पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने का फैसला भी हो चुका था।
लेकिन सहसा मुझे सामने देख सब हैरान हो गए और राहत की सांस भी
ली।
और मैंने जब पूरा माज़रा सुनाया तो एक बार फिर चाचाजी को घेर
कर फायरिंग हुई। आखिर में 'आइन्दा ऐसा न हो' की कड़ी ताक़ीद
के साथ उन्हें माफ़ किया गया।
लेकिन चाचा नहीं सुधरे। वो गुल गपाड़े करते रहे। उनकी जल्दबाज़ी
के लोग शिकार होते रहे। अब वो ८५ वर्ष के हैं। नाना प्रकार की व्याधियों को एन्जॉय
कर रहे हैं।
मुझे उम्मीद है कि मित्रों आप भी कभी न कभी दूसरों की जल्दबाज़ी
के शिकार ज़रूर हुए होंगे।
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