Wednesday, December 2, 2015

लिफ़्ट प्लीज़, अपटू टाइम्स चौराहा।

- वीर विनोद छाबड़ा 
हम आमतौर पर देर से ऑफिस छोड़ते थे। यही कोई शाम साढ़े छह बजे। सर्दियों में तो इतने समय तक चिराग़ जल चुके होते थे।

रामप्यारे जी अक़्सर स्कूटर स्टैंड के गेट पर खड़े मिलते - लिफ़्ट प्लीज़। टाइम्स चौराहे तक।
हमें कोई ऐतराज़ न होता। रास्ते में ही तो था। फिर रामप्यारे हमारे सीनियर थे। हम सेक्शन ऑफ़िसर और वो डिप्टी सेक्रेटरी। लेकिन हमें हैरानी यह होती थी कि इनका घर तो टाइम्स से आगे है और वो भी हमारे रास्ते में है। यह टाइम्स पर ही क्यों ड्राप होते हैं? कभी यह क्यों नहीं कहा कि घर तक ड्राप कर दो। फिर ख्याल आता कि यार, शादी-शुदा आदमी है। हज़ार काम होते हैं। दूध-डबलरोटी-अंडा या बिरयानी कुछ भी लेना होता होगा। हमारी बलां से।
हम खुद को डांट देते - ज्यादा लंबा मत सोच और न ही दूसरे के फटे में हाथ डाल।
लेकिन एक दिन हमारा दिल न माना।
रामप्यारे जी ने लिफ़्ट मांगी - टाइम्स चौराहा।
लेकिन हमने रामप्यारे जी की एक न सुनी। वो टाइम्स पर रोको-रोको कहते रह गए। लेकिन हमने स्कूटर नहीं रोका। सीधा उनके घर के सामने रोक कर माने।
रामप्यारे जी स्कूटर से उतरे। चेहरे पर उदासी। थोड़ा गुस्सा भी। थैंक्यू-शैंक्यु भी नहीं बोले। एक खाली रिक्शे पर बैठ गए - चलो टाइम्स।
हम गहरी सोच में पड़ गए। ये क्या हो गया इस बंदे को? इनको घर पर छोड़ा और इसका यह अंजाम? भलाई का ज़माना ही नहीं रहा। होगा कुछ स्क्रू ढीला।
हमने अब तक जो हुआ उसे निकालने के लिए सर झटका। हेलमेट लगाया। सेल्फ लेकर स्कूटर स्टार्ट किया और निकल लिए।
दूसरे दिन सुबह-सुबह ही गेट पर ही रामप्यारे मिल गए। सीनियर होने के नाते हमने नमस्ते की। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और आगे निकल लिए।
हमने सोचा - हमसे कुछ न कुछ तो गड़बड़ हुई है।
तभी सियादुलारे दिख गए। हमारे अभिन्न मित्र। चलते-फिरते सूचना केंद्र। भंडार रहता था उनके पास सूचनाओं का। उस ज़माने के फ्री इंटरनेट। हमने उनको सारी राम कहानी कह सुनाई।
सियादुलारे ताली मार कर जोर से हंसे - तुम भी गज़ब करते हो। तुम्हें मालूम नहीं? टाईम्स चौराहे पर उनकी लल्लो खड़ी इंतज़ार करती होती है।
हमें याद आया। यह किस्सा कुछ सुना तो है। लेकिन हमें न मालूम था कि वो 'दूसरी मंज़िल' टाइम्स चौराहे पर मिलती है। अब हम तो भलमनसाहत में उन्हें असली वाली 'पहली मज़िल' पर ही तो छोड़े थे।

खैर, वक़्त गुज़रा। रामप्यारे जी से दुआ-सलाम फिर क़ायम हो गयी। लेकिन हमारे पक्ष में एक अच्छी बात यह रही कि रामप्यारे जी ने हमसे आयंदा लिफ़्ट नहीं मांगी।
अब तो रिटायर हुए भी मुद्दत हो गयी सबको। हम, रामप्यारे जी, सियादुलारे और लल्लो सब सठिया चुके हैं।
कुछ दिन हुए रामप्यारे जी ऑफिस में मिल गए। ताकि पेंशन मिलती रहे, इस ख़ातिर ज़िंदा होने का सबूत जमा करने आये थे वो और हम भी। हमने शरारतन ऑफर दिया - जहां कहिये, छोड़ दूं।
रामप्यारे जी कुछ पल के लिए कहीं दूर कहीं यादों में खो गए। फिर वो बहुत जोर से हंसे - नहीं, अब गाड़ी है मेरे पास।
अब यह हमने नहीं पूछा कि मंज़िल क्या है? दरअसल, दूसरे के फटे में हाथ डालने की आदत हमारी आज भी नहीं है।
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