- वीर विनोद छाबड़ा
जब साठ के दशक हमने
होश संभाला था तो दिलीप कुमार राज कपूर और देवानंद की तिकड़ी पर्दे पर राज किया करती
थी। अशोक कुमार थे तो इनसे ऊपर लेकिन रोमांटिक हीरो नहीं थे। राजेंद्र कुमार जुबली
कुमार कहलाते थे। धर्मेंद्र का बस नाम सुना था। उनकी पहली फिल्म हमने स्कूल बंक करके
'आई मिलन की बेला' देखी। लेकिन वो उसमें हीरो नहीं विलेन थे। हमने एक लड़की के मुंह
से सुना - हाय राम, यह तो हीरो से भी ज्यादा डैशिंग है।
तब हमने जाना कि धर्मेंद्र
फिल्मफेयर और यूनाइटेड प्रोड्यूसर टैलेंट हंट की पैदाइश हैं। इसके बावजूद उन्हें फ़िल्में
नहीं मिल रही थीं। उन्हें कहा गया, तू पहलवान दिखता है। अखाड़े में कुश्ती लड़।
एक बार वो बेहोश हो गए। डॉक्टर ने कहा - कुछ नहीं हुआ इसे। भूखा है। कुछ खिलाओ।
धर्मेंद्र की पहली
फ़िल्म थी - दिल भी तेरा हम भी तेरे। फ़िल्म फ्लॉप हो गयी। लेकिन धर्मेन्द्र चल निकले।
अनपढ़, पूर्णिमा, मझली दीदी, काजल, मैं भी लड़की हूं,
बंदिनी, पूजा के फूल, ममता, आपकी परछाईयां,
अनुपमा जैसी अनेक नायिका प्रधान फिल्मों के हीरो बन गए। बात कुछ जम नहीं रही थी।
शी मैन का तमगा मिलने
ही वाला था कि राजेंद्र कुमार ने उन्हें 'आई मिलन की बेला'
में विलेन का रोल दिलाया। उनकी डैशिंग पर्सनाल्टी हीरो पर भारी पड़ गयी। उनके पास
विलेन के रोल आने शुरू हो गए।
राजेंद्र कुमार फिर
उनके काम आये। बहनोई ओपी रल्हन की 'फूल और पत्थर' दिलाई। रल्हन को धर्मेंद्र
से एक नामालूम खुन्नस थी। वो चाहते नहीं थे उन्हें लेना। लेकिन जीजा जी का पैसा लगा
था। सीधे-सीधे न भी नहीं कर सके। मीना कुमारी के सामने धर्मेंद्र को शर्ट उतारने का
सीन करना था। बिदक गए वो। मीना जी इतनी सीनियर आर्टिस्ट के सामने शर्ट उतारूं?
ना बाबा ना। रल्हन तो मौका तलाश ही रहे थे उन्हें बाहर करने का। लेकिन राजेंद्र
कुमार ने धर्मेंद्र को समझाया कि भावुक मत बनो। बताते हैं कि मीना जी ने भी उन्हें
क़सम दिलाई। उन दिनों मीना और धर्मेंद्र के अंदर कुछ 'गुप-चुप' को लेकर चर्चायें भी
बहुत थीं।
बहरहाल, मीना का कहना धर्मेंद्र मान गए। फूल और पत्थर सुपर हिट हुई। धर्मेंद्र 'ही मैन' बन गए। पंजाब दा पुत्तर।
इसके बाद धर्मेंद्र ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। स्टार बन गए वो। धरम जी कहलाने लगे।
कामयाबी सर चढ़ कर बोलने लगी। थोड़ा गरम होने लगे। धरम-गरम हो गए। २८८ फ़िल्में कर गए।
धरमजी एक मात्र हीरो
हैं जो रोमांटिक होने के साथ साथ ड्रामा, कॉमेडी और एक्शन के
भी बादशाह रहे। हर फॉर्मेट में उन्हें देख कर ऐसा लगा, जैसे वो इसी के लिए
बने हैं। उस दौर में बिमल राय, हृषिकेश मुख़र्जी, दुलाल गुहा,
असित सेन, यश चोपड़ा, राज खोसला, बसु चैटर्जी,
मनमोहन देसाई, प्रमोद चक्रवर्ती, रमेश सिप्पी आदि तमाम
बड़े डाइरेक्टर्स के साथ काम किया। तुम हसीं मैं जवां, शोले, सीता और गीता,
प्रतिज्ञा, नया ज़माना, सत्यकाम, शिकारी, ब्लैकमेल, राम बलराम,
शालीमार, चुपके चुपके, आज़ाद, जुगनू, राजा जानी,
शराफ़त, दो चोर, दोस्त, धर्मवीर, चाचा-भतीजा,
चरस, आंखें, ललकार, आदमी और इंसान,
कातिलों का कातिल, मेरा गांव मेरा देश, दो चोर आदि बेशुमार
हिट फ़िल्में की।
बहुतों को हज़म नहीं
हुआ, धर्मेंद्र ने दो शादियां की। एक १९५४ में तब वो महज़ १९ साल के
थे और दूसरी १९८० में हेमा मालिनी के साथ। हेमा के साथ उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा
फ़िल्में की। ज्यादातर हिट रहीं इसमें।
उन्हें भारत सरकार
ने पद्मभूषण से सम्मानित किया है। १९७० में वो दुनिया के हैंडसम पर्सन चुने गए। फ़िल्मी
दुनिया में आये धरमजी को पचपन साल हो चुके हैं। कब वो धरमजी से धरम पा'जी हो गए पता ही नहीं
चला।
धरम जी को हेमा राजनीति
में ले आयीं। उन्होंने २००४ में बीकानेर से बीजेपी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा।
सबको ठीक कर देने की धमकी दी। इससे कुछ विवादा उत्पन्न हुए। लेकिन फिर भी वो भारी बहुमत
से जीते। लेकिन धरम जी राजनीति के लिए बने ही नहीं थे। लोक सभा में उनकी परफॉरमेंस
ख़राब रही। अपने क्षेत्र में उनके विरुद्ध पोस्टर लगे - गुमशुदा की तलाश।
धरम पा'जी को ज़िंदगी भर मलाल
रहा कि कई बार नॉमिनेट होने के बावजूद उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट एक्टर अवार्ड नहीं
मिला। लेकिन १९९७ में उनकी यह ख्वाईश पूरी हुई। फ़िल्मफ़ेयर का लाईफ़टाईम अचीवमेंट अवार्ड
देते हुए दिलीप कुमार ने कहा - जब मैं खुदा से मिलूंगा तो शिक़ायत करूंगा कि मुझे धर्मेंद्र
जैसा हैंडसम क्यों नहीं बनाया?
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