Sunday, December 6, 2015

वो छह दिसंबर!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज इतवार है। मुझे अच्छी तरह याद है कि उस ०६ दिसंबर १९९२ को भी इतवार था। इतवार होने के कारण दफ़्तर बंद था। मैं मार्किट के लिए तैयार हो रहा था कि पिताजी ने ब्रेकिंग न्यूज़ दी - बाबरी मस्जिद गिराई जा रही है।

दूरदर्शन पर बताया जा रहा था कि कुछ हिस्सा गिर चुका था और बाकी गिराया जा रहा है। रेडियो पर बीबीसी भी यही बता रहा था।
हम सन्न थे। शब्दहीन। शर्मसार भी। मगर मुझे उम्मीद थी कि अभी आर्म्ड फोर्सेज स्थिति पर काबू पा लेंगी।
मैं मार्किट के लिए निकल पड़ा।
रास्ते में सब शांति मिली। लेकिन तूफ़ान आने से पहले के अंदेशे जैसी। लगा आज सफ़र कुछ लंबा है।
मैं मार्किट  पहुंचा। मौजूदगी रोज़ाना जैसी नहीं थी। माइनॉरिटी का एक भी बंदा नहीं था। उनकी दुकानें भी बंद थीं। ज़ाहिर था सब ग़मगीन थे और भयभीत भी। बड़े भाई किस किस्म का सिला दे रहे हैं?
लोग चर्चा में व्यस्त थे। ज्यादातर लोग खुश थे और भविष्य में बीजेपी के देश में छा जाने कि भविष्यवाणी करते हुए पुलकित हो रहे थे। यक़ीनन मुझे कतई अच्छा नही लगा। चाहे वो मस्जिद है या मंदिर। मामला कोर्ट में है। किस बात की जल्दी है? ज़बरदस्ती क्यों? अगर भगवान राम वहीं पैदा हुए है और अगर भगवान वास्तव में हैं तो खुद सबूत देंगे। 
मुझे कतई अच्छा नहीं लगा। मैंने प्रतिवाद करना चाहा। लेकिन मुझे अपना कोई हमख्याल नहीं दिखा।
सहसा मुझे अनिल सिंह मिल गए। बोले - ऑफिस बुलाया गया था।
मैंने कहा - आज तो संडे है।
वो बोले - बॉस का सुबह सुबह फ़ोन आया था। कुछ और भी बुलाये थे। लेकिन माहौल गर्म देख कर सब वापस कर दिए गए।
अनिल सिंह क्रिश्चियन था। उससे मैंने अपनी भावनाएं ज़ाहिर की।
उसने कान में धीरे से कहा -  सब पगलाए हुए हैं। अब निकल लो। शहर में हालात अभी तक तो ठीक हैं। लेकिन कभी भी बिगड़ सकते हैं।
अनिल सिंह का घर रास्ते में था। मैंने उसे स्कूटर पर पीछे बैठाया और घर चल दिए।
निशातगंज शुरू होते ही उन्मादी भीड़ के जत्थे मिलने लगे। हाथ में थालियां और उसमें ढेर केसरिया रंग। हम मजबूरन ठीका लगवाते रहे। जान बचाना पहली प्राथमिकता थी। हमसे जबरिया बुलवाया भी जा रहा - जै श्रीराम। अनिल ने मुझे कस कर पकड़ा हुआ था। निशातगंज और आसपास अनेक मुस्लिम परिवार हैं। लेकिन शुक्र तो ये था कि प्रतिवाद के लिए दूसरा पक्ष बाहर नहीं निकला।
मैंने अनिल को उसके घर ड्राप किया। हालांकि हिंदू होने के नाते मुझे भीड़ से कोई ख़तरा नहीं था। लेकिन उन्मादी तत्वों का कोई भरोसा नहीं होता। मैं भीड़ से बचते हुए किसी तरह घर पहुंचा।
पिताजी टेलीफोन पर बिजी थे। शहर के पुराने इलाकों का जायज़ा ले रहे थे। अपने मुस्लिम दोस्तों का हौंसला बढ़ा रहे थे कि ख़तरा लगे तो मेरे घर आ जाओ। हिफाज़त की पूरी गारंटी है। ढाल बन कर खड़ा हो जाऊंगा। पीछे की लेन में रहने वाले फ़रीद भाई को तो उनके घर जाकर यही ऑफर दे आये।
रात हो चुकी थी इसके साथ डर और ख़तरा भी बढ़ चुका था। तभी एक मशाल जुलूस उन्मादी नारे लगाता घर के सामने से गुज़रा, जिसमे हमारे मोहल्ले के कई संभ्रांत शामिल थे। सब जाने पहचाने चेहरे। और तो और मेरा पड़ोसी भी दिखा उसमें।
जुलूस मेरे घर के सामने ठहर गया। पिताजी और मैं बाहर आये। पिताजी की नेमप्लेट उर्दू में थी। मैं भाग कर गया। एक चद्दर उठा लाया, नेम प्लेट पर डालने के लिए। पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। वो मुक़ाबला करने के लिए तैयार थे । पिताजी मोहल्ले में जाने-माने आदमी थे। सब उनकी बेहद भी इज़्ज़त करते थे।

दो व्यक्ति आगे बढ़े। उन्होंने पिताजी से जुलूस में शामिल होने का अनुरोध किया।
मगर पिताजी ने सख़्ती से मना कर दिया। बल्कि सलाह दी कि माइनॉरिटी को नुकसान नहीं होना चाहिए। उन्होंने प्रॉमिस किया कि ऐसा नहीं होगा। 
मैं डरा हुआ था। लेकिन इतना नहीं कि टूट जाऊं। गुस्सा भी बहुत आ रहा था - कितने असभ्य और बर्बर हो गए हैं हम। कल का भारत कैसा होगा? हो सकता है कुछ भी न हो और हो सकता है कि विध्वंस का भयानक दौर देखने को मिले। 
बहरहाल, इतिहास गवाह है कि आगे का दौर कैसा रहा। हम बहुत तरक़्क़ी कर गए। चांद-सितारों से बात करने लगे हैं। मंगल तक भी पहुंच गए हैं। आज वो लोग सत्ता में हैं जिन्होंने विध्वंस कराया।
लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो हम कल जैसे आज नहीं हैं। हम साथ रहते हुए भी दूर-दूर हैं। एक-दूसरे का विश्वास खो चुके हैं।
लेकिन आशा की एक किरण दिखाई दी है, बिहार के चुनाव नतीजों में। फ़िरक़ा परस्तों को ज़बरदस्त धूल चटाई है। इधर मंदिर वहीं बनाएंगे का मुद्दा फिर गरमा रहा है। जबकि मामला कोर्ट में है। केंद्र सरकार ख़ामोश है। देखना है बिहार कहां-कहां बनता है।
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०६-१२-२०१५ mob 7505663626
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