-वीर विनोद छाबड़ा
होश संभालाते ही हमें
एक खास ब्रांड का जूता पहनने की चाहत लग गई। लेकिन औक़ात से बाहर होने के कारण इच्छा
दफ़न कर दी।
दिन गुज़रते गए।
वक़्त हमारी शादी तक
आ पहुंचा। हमारे यहां एक रिवाज़ है। शादी के रोज़ दूल्हे के तन पर धारित नई पैंट-कमीज
और पांव में जूते-मोज़े की कीमत की वसूली दुल्हन के मायके से की होती है। पलट कर दुल्हन
वाले भी यही करते हैं। दुल्हन की शादी के जोड़े और सर से पांव तक की सज-धज पर आये खर्च
का भुगतान दूल्हा पक्ष देता है।
हमारे केस में भी दुल्हन
पक्ष ने राजी-खुशी कह दिया कि जो पसंद हो खरीदो। न रकम की हदबंदी है और न औक़ात की।
बस रसीद पक्की रसीद भिजवा देना। पाई-पाई चुका दी जायेगी। हमारी बाछें खिल उठीं। सोयी
हुई पुरानी इच्छा कब्र फाड़ कर बाहर आ गयी। हमने सोचा अपनी पसंद का महंगा वाला जूता
ख़रीदने का यही मौका है।
लेकिन सोशलिज़्म तो
हमारे डीएनए में था। सो सोये ज़मीर ऐन वक़्त पर जागना ही था। उसने हमें बेतरह धिक्कारा।
साथ-साथ चैलेंज भी किया - अबे, जिस जूते को खरीदने की औक़ात नहीं है तुम्हारी,
उसका भार भावी दुल्हन के मायके पर क्यों डाल रहा है? ये कहां का इंसाफ है?
सोच ज़रा, दुल्हन पर कितना ख़राब इंप्रेशन पड़ेगा? अगर तेज तर्रार निकली
तो समझ लेना सुहागरात के दिन ही तेरा बड़ा ग़र्क़। जूते से ख़बर लेगी।
हम डर गए।
वो बात दूसरी है कि
दुल्हन पक्ष कोई समाजवादी विचारधारा से पीड़ित नहीं था। उन्होंने हमें जम कर चूना लगाया।
बहरहाल, हमने भीष्म प्रतिज्ञा
की कि मनपसंद जूता तभी खरीदूंगा जब औक़ात होगी। अब तक हम पुराने जूतों को बार-बार मरम्मत
करा के पहनते आये थे। जब मोची कह देता था कि अब इसमें कोई गुंजाईश नहीं तभी तिलांजलि
देते थे। उस दिन भी यही हुआ - मोची ने जूता उठा कर फ़ेंक दिया। हमने चिरौरी की तो मान
गया मगर इस शर्त पर कि कोई गारंटी नहीं। हमने कहा - ठीक है। हमें कौन अपनी शादी में नाचना है। फिर जूता चुराने का
भी रिवाज़ है। पुराना जूता देख सालियां चोरी भी नहीं करेंगी।
और वाक़ई ऐसा ही हुआ।
सदियां गुज़र गयीं। किसी न किसी वज़ह से मनपसंद जूता खरीदने का प्रोग्राम टलता रहा। एक
बार तो न खरीदने की वज़ह तो यह रही कि हमारे
तन पर पड़े कपड़ों की कुल क़ीमत जूतों से कम थी।
आख़िरकार वो दिनआया।
हम रिटायर हो गए। दफ़्तर से काफ़ी पैसा मिला था। गर्म सूट के दिन थे। औक़ात बराबर दिख
रही थी। पहुंच गए जूतों के ब्रांडेड शो रूम में - हां तो भाई, दिखा तो वो मनपसंद
जूता जिसकी चाहत में हम साठ पार कर गए।
सेल्स मैन ने हमें
सर से पांव तक घूरा। जैसे हम कोई नमूना हों। हमने कहा - क्या हुआ भाई? तुझे सांप सूंघ गया
क्या?
वो बोला - सर,
किस दुनिया से आप आये हैं। उस जूते को गुज़रे तो ज़माना गुज़र गया। इतना मज़बूत जूता
था कि न घिसे और न फटे। ऐसा जूता किस काम का? खरीददार कम हो गए कंपनी
का भट्टा बैठते-बैठते बचा।
हम मायूस हो गए। सारा
जिस्म जैसे संज्ञा शून्य हो गया।
सेल्स मैन को हमारी
यह दशा देख कर तरस आ गया। उसने सुझाव दिया - सर, किसी कबाड़ी के यहां
देख लें। हो सकता है कोई फटा पुराना जोड़ा मिल जाये। मरम्मत करवा कर पहन लें। या फिर
पुराने माल के किसी शौक़ीन के शो केस में बतौर एंटीक सजा होगा। दर्शन कर के इच्छा पूर्ण
कर लें।
हमें लगा मानों बड़े
बेआबरू किसी के कूचे से निकल रहे हों।
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