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वीर विनोद छाबड़ा
ठीक ठीक याद नहीं। शायद १९७० रहा होगा। दिल्ली गए थे हम बस यूं ही टहलने।
उन दिनों पंजाबी फ़िल्म 'नानक नाम जहाज़ है' चल रही थी। बड़ी स्टार कास्ट थी - पृथ्वी राज कपूर, निशी, सोमदत्त, विम्मी, आईएस जौहर आदि। रिकॉर्ड
तोड़ बिज़नेस कर रही थी।
फिल्म के शौक़ीन तो हम थे ही। लेकिन पंजाबी फ़िल्में बहुत कम देखने को मिली थीं।
लखनऊ में न जाने कब आये। हमारी भी उत्सुकता जगी। पन्द्रवां हफ़्ता रहा होगा। कश्मीरी
गेट के पास था वो थिएटर - रिट्ज़। टिकट की लंबी लाईन। हमारा नंबर आने ही वाला था कि
हाउसफुल।
हम स्पेयर टिकेट की तलाश में इधर-उधर देखने लगे। एक बुज़ुर्ग सरदारजी दिखे, फैमिली सहित। किसी
को तलाश रहे थे। हम ताड़ गए कि इनके पास स्पेयर टिकट है। कोई सही बंदा तलाश रहे थे।
हम ग़लत नहीं थे। उनका बेटा नहीं पहुंच पाया था। हमने उनको पैसे देना चाहा तो बोले
- ओए काका, अंदर ते चल ही रहे हां न। दे देना।
बहरहाल, हमने उनको सीट पर बैठते ही पैसे दे दिये। उन्होंने हमें आशीर्वाद दिया - ज्यूंदा
रह। वडी उम्र हो तेरी।
थोड़ी देर में फिल्म शुरू हो गयी। दस मिनट गुज़रे न थे कि सरदार जी ने मेरी ओर देखा
और पूछा - काका, रुमाल है तेरे बोजे
विच?
हमें आश्चर्य हुआ - हां, है।
उन्हें इत्मीनान हुआ - सिर ते रख ले।
हमने उनकी आज्ञा का पालन किया।
सरदारजी ने हमारी पीठ थपथपाई - चंगा पुत्तर।
हम सोच रहे थे कि हाल में तमाम लोग थे जिनके सिर पर कुछ नहीं था। हमीं को क्यों
कहा?
कुछ पल बाद इसका जवाब भी हमीं ने दे दिया - शायद इसलिये कि हम उनके बेटे की सीट
पर बैठे थे।
बहरहाल, फ़िल्म ख़त्म हुई। हमने सरदारजी जी को सत श्री अकाल बोला।
उन्होंने हमारी पीठ पर हल्का सा धौल मारा।
हम बाहर आये। सिर से रुमाल हटाया। लेकिन न जाने क्यों फिर सिर रख लिया और अच्छी
तरह गांठ भी मार दी।
अरसा हो गया है उस घटना को। हम जब भी किसी गुरद्वारे के सामने से गुज़रते हैं तो
सिर पर रुमाल रख लेते हैं। और यह स्वतः ही होता है।
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