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वीर विनोद छाबड़ा
दिलीप कुमार साहब पक्के परफेक्शनिस्ट थे। उन्हें एक-दो रिटेक में कभी आनंद नहीं
मिला। रिटेक पर रिटेक। वो बात दूसरी है कि अक्सर पहला वाला ही फ़ाईनल रहा। नतीजा - छह
महीने में तैयार होने वाली फिल्म दो साल में बनी और बजट भी बढ़ता चला गया।
कुछ-कुछ ऐसे ही थे हमारे काका उर्फ़ राजेश खन्ना। खासतौर पर तब जब अमरदीप (१९७९)
से वो एक नए रूप में दिखे। उनके कैरियर में परफॉरमेंस के नज़रिये से ये यह एक शानदार
फिल्म थी और साथ ही बॉक्स ऑफिस पर सफलता की वापसी भी। और 'अवतार' (१९८३) इस परफॉरमेंस
की पराकाष्ठा थी।
दिलीप साब की धरोहर राजेश खन्ना में ही दिखती थी। दोनों पक्के स्टाइलिश और परफेक्शनिस्ट।
ख़बर थी कि दिलीप कुमार और राजेश खन्ना में बहुत पटरी खाती थी। अक़्सर शामें साथ गुज़रती
थीं। जाम के साथ राजनीति, फिल्म इंडस्ट्री और पारिवारिक मुद्दों पर लंबे डिस्कशन भी चले।
लेकिन हैरानी होती है कि अदाकारी की दुनिया में 'मील के पत्थर' इन दो लीजेंड को एक-साथ
लाने की कोशिश क्यों नहीं की गई?
दिलीप कुमार-राजकपूर (अंदाज़), दिलीप कुमार-देवानंद (इंसानियत),
दिलीप कुमार-संजीव कुमार (संघर्ष, विधाता), दिलीप कुमार-अमिताभ बच्चन (शक्ति),
दिलीप कुमार-शम्मी कपूर (विधाता), दिलीप कुमार-नसीरुद्दीन
शाह (कर्मा) और दिलीप कुमार-राजकुमार (पैगाम, सौदागर) जब एक साथ आये तो अदाकारी की दुनिया में नए गुल खिले। परफॉरमेंस की शौकीनों के कलेजों पर
ठंड पड़ी और तमाम एक्टर्स के इल्म में इज़ाफ़ा भी हुआ।
अगर ये दो लीजेंड आमने-सामने खड़े हुए होते तो हमारा दावा है कि अदाकारी की दुनिया
यकीनन पूरी तरह गुल से गुलज़ार हो गई होती और एक्टिंग की यूनिवर्सिटी में चल रही तमाम
किताबों का आख़िरी चैप्टर भी यूसुफ-काका की बेजोड़ परफॉरमेंस होती। हमें तो इस बात पर
भी बहुत तक़लीफ़ होती है कि दिलीप-राजेश-अमिताभ को एक साथ लेकर फ़िल्म बनाने का ख़्याल
किसी को क्यों नहीं आया?
सवाल यह है कि इसमें गलती किसकी है। यक़ीनन फिल्ममेकर की है। दुनिया को एक से बढ़
कर एक नायाब तस्वीरें देना फ़िल्मकार की ड्यूटी है। दिलीप कुमार और राजेश खन्ना अगर
एक छत के नीचे नहीं आ पाये तो हम तो कहेंगे कि फ़िल्मकार अपनी ड्यटी अंजाम देने में
नाक़ाम रहा है।
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