Sunday, December 20, 2015

और हम हो गए ६५ के!

- वीर विनोद छाबड़ा
यक़ीन नहीं आता कि हमने ६५ साल पार कर लिए।
अभी कल ही की तो बात है हम दरवाज़े पर बैठे हम तीन भाई-बहन पिताजी के ड्यूटी से लौटने का इंतज़ार कर रहे थे। शाम का धुंधलका गहरा हो चुका है। तभी सीढ़ी कंधे पर रखे एक आदमी आया। उसने लैंप पोस्ट से सीढ़ी टिकाई। कंधे से लटकी बोतल से मट्टी का तेल उसमें डाला और दियासलाई दिखा दी। रोशन हो लैंप पोस्ट और आस-पास का नज़ारा भी।

ये पहली-पहली याद है। उस समय हमारी उम्र छह बरस की रही होगी। उसके बाद से कितनी ही यादें हैं। तपती गर्मी और आलमबाग के रेलवे क्वार्टरों में खड़े विशाल जंगल जलेबी के पेड़। सिंगार नगर की नहर में नंगे हो कर नहाना। पटाखे चोरी करने पर पकड़े जाना। घर आये मेहमान को जुमे की नमाज़ के लिए मस्जिद की बजाये मंदिर के सामने खड़ा कर दिया। साईकिल चलाना सीखते हुए कई बार बुरी तरह चोटिल हुए। पढाई की बजाये खेल कूद में ज्यादा मन लगना। गिरते-पड़ते हाई स्कूल तक पहुंचे। पिक्चरबाज़ी का शौक चढ़ना। नतीजा, फेल हो गए। अगली बार संभल गए। लेकिन पिक्चरबाज़ी न छूटी। इंटर में फिर फेल हुए। गहरा धक्का लगा। मां ने सपना देखा था बेटा डॉक्टर बने और पिताजी इंजीनियर बनाना चाहते थे। हमसे न पूछा गया, बेटा तू क्या बनेगा?
वक़्त पीछे छूट रहा था। हमने रेस लगानी शुरू की। बहुत की चाह कभी नहीं रही। जितना चाहा मिलता गया। बहुत संघर्ष नहीं करना पड़ा। किसी ने मदद नहीं की। दोस्तों ने रास्ता ज़रूर दिखाया। अपने पिता जैसा महान नहीं बन पाया लेकिन उनकी तरह सेल्फ़मेड ज़रूर बन गया। अपनी नौकरी खुद तलाशी। उन्हें छह महीने बाद पता चला कि हम इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में मामूली असिस्टेंट की नौकरी कर रहे हैं। बहुत नाराज़ हुए। बहुत ऊंचे सपने देखे थे। लेकिन जब दो साल बाद अपर डिवीज़न का टफ़ एग्जाम पास कर लिया तो उनको कुछ तसल्ली हुई।
शादी हुई। हमने सोचा था हम पढ़े-लिखे हैं, साहित्यिक माहौल है हमारे घर का। लिहाज़ा हम औरों से अलग हैं। लेकिन यहां भी कहानी घर-घर जैसी निकली। हमें बहुत अफ़सोस हुआ। हम यायावर बन चाहते थे। उड़ना चाहते थे। लेकिन पारिवारिक उत्तरदायित्वों के बोझ तले हम दबते चले गए। इसके लिए हम दोष किसी को नहीं देते। इन्हें हमने खुद स्वीकार किया।
ऑफिस में भी हमने ज़रूरत से ज्यादा दायित्वों को निभाया। कई बार व्हिसल ब्लोअर का काम किया तो अपने ही हाथ जला बैठे। एक बार चार्जशीट तक मिल गयी। लेकिन हमारे यक़ीन ने साथ नहीं छोड़ा कभी। हर बार हम बाईज़्ज़त बरी हुए।

हमने अब तक की ज़िंदगी की हर लड़ाई अकेले और अपने दम पर लड़ी है। अपने पिता को दिया ये वचन पूरी तरह से अदा किया है कि ईमानदारी से जियूँगा। ताकि दुनिया से आंख मिला कर बात कर सकूं। किसी के सामने गिड़गिडाया नहीं हूं।
पिताजी ने ही बताया था कि खंगालो तो हर आदमी की ज़िंदगी में कई कहानियां, उपन्यास और नाटक गिरेंगे हैं। उसे कलमबद्ध करने की कला होनी चाहिए। छोटी ख़ुशी में बड़ी ख़ुशी तलाशनी चाहिए। हर पल में ज़िंदगी ढूंढनी चाहिए। वही कर रहा हूं। काम कुछ देर से शुरू किया है। इसलिये बैकलॉग बहुत है। अभी बहुत काम बाकी है।
ज़िंदगी हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन यक़ीन है कि इतनी ज़रूर मिलेगी कि जिस काम के लिए पैदा हुआ हूं उसे पूरा कर सकूं।
मेरे जन्मदिन पर मुझे बधाई देने और मेरे लंबे जीवन की कामना करने वालों का बहुत बहुत शुक्रिया।
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