Sunday, December 27, 2015

बिन वीज़ा मुझे भी भिजवा दो पाकिस्तान।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे पीएम मोदी जी लाहोर हो आये। कोई खुश है और कोई नाराज़। सबके अपने अपने कारण हैं और निहितार्थ भी। मोदी जी को कोई फेल कर रहा है तो कोई पास।
 
लेकिन मेरे लिए अच्छी ख़बर यह है कि अगर हमारे प्रधानमंत्री जी ने बिना वीज़ा के लाहोर का चक्कर लगा सकते हैं तो आम आदमी भी लगा सकता है। अगर ऐसा मुमकिन हुआ तो बिना वीज़ा पाकिस्तान जाने वालों की लाईन में मैं भी लगा मिलूंगा।

मेरे पुरखे पाकिस्तान के मियांवाली ख़ास के रहने थे। मेरे माता-पिता और तमाम दीग़र रिश्तेदारों को पार्टीशन की बाध्यता के कारण १९४७ में घरद्वार छोड़ कर भारत आना पड़ा। रास्ते में हो रहे दंगे-फसादों से भी दो-चार होना पड़ा। उन्हें उम्मीद थी कि हालात नार्मल होंगे और वो अपने घरों को, अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे। ज़मीन से उनके बेतहाशा इश्क के कारण  इस्लामिक स्टेट होने के बावजूद भी पाकिस्तान उन्हें कबूल था।


लेकिन हालात बद से बदतर हो गए। उन्हें अपनी ज़मीन और मकान से महरूम होना पड़ा। दोबारा से कुटिया बनानी पड़ी, हाड़ मेहनत करके सरमाया खड़ा करना पड़ा। 

हमारा परिवार रोज़ी-रोटी की तलाश में इधर-उधर बिखर गया। लेकिन घर और ज़मीन की याद दिलों से नहीं गयी। मेरे पिता राम लाल उर्दू के सुप्रसिद्ध लेखक रहे हैं। उन्हें १९८० में पाकिस्तान जाने का मौका मिला। 
वो लाहोर के उस घर में गए जहां से उन्होंने आख़िरी मरतबे पाकिस्तान को देखा था और मियांवाली के उस स्कूल में गए जहां से उन्होंने हाई-स्कूल पास किया था। उस पेड़ के नीचे भी जाकर कुछ देर खड़े हुए जहां मेरी मां अपनी सखियों संग किकली और गीटे खेलती थी। पिताजी उस घर में भी गए जहां वो पैदा हुए थे। उन्होंने अपने घर की दीवारों से मुख़ातिब होकर अपने पुरखों से कहा था - मैं इस ख़ानदान का आख़िरी आदमी हूं जो यहां आया हूं, मेरे बाद यहां कोई नहीं आयेगा।


मैं अपने मरहूम पिता को बहुत चाहता हूं, उनकी बेइंतहा इज़्ज़त करता हूं। यूं तो मैं बहुत शांत आदमी हूं, खून चूसने वाले मच्छर तक को मारने से परहेज़ करता हूं, लेकिन पिताजी को कोई अपशब्द कहता हैं तो मरने-मारने पर उतारू हो जाता हूं। मगर इस सबके बावजूद मैं अपने पिता को झुठलाना चाहता हूं।

मैं भी उन दरो-दीवारों से मुख़ातिब होकर अपने पुरखों को बताना चाहता हूं - आपका एक और वारिस भी यहां आया है।

मेरे पास उस मकान की तस्वीरें हैं, जिसे मेरे पिताजी १९८० में कैमरे में बंद करके लाये थे। मुझे नहीं मालूम कि वो मकान अब वज़ूद में है या नहीं। लेकिन मुझे यक़ीन है कि उस इलाके की मिट्टी में मैं अपने पुरखों के 'होने' की गंध को पहचान लूंगा, उनके वज़ूद का अहसास कर लूंगा। उस मिट्टी के डीएनए में भी उनका वज़ूद होगा।
बस मुझे इंतज़ार है तो उस दिन का, अमन और आशा की उस सुबह का, जब मैं भी बिना वीज़ा लिए अपने पुरखों की ज़मीं पर कदम रखूंगा, उस पर लोट-लोट कर  जी भर कर चूमूंगा और चीख चीख कर कहूंगा - मेरे पुरखों, लो मैं आ गया।
मैं आशावादी ही नहीं घनघोर आशावादी हूं।
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27-12-2015 Mob 7505663626
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