-वीर विनोद छाबड़ा
‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट, बड़ा बजट, विशाल कैनवास।
उस ज़माने की सबसे महंगी फिल्म। राजकपूर द्वारा ज़िंदगी में देखे तमाम सपने और कामयाबियों-नाकामियां
के दस्तावेज़ इस फिल्म का हिस्से थे। ज़िंदगी भर की कमाई लगा दी इसे शाहकार बनाने में।
राजकपूर ‘मेरा नाम जोकर’को दुनिया का इतना
बड़ा शो बनाने पर तुले थे कि आने वाले वक़्त में कोई बराबरी न कर सके। धरती पर यह आखिरी
बड़ा शो हो। पूरे छह साल लग गए इस ड्रीम को पूरा करने में। राजसाब ने चैन की सांस ली।
मगर जब प्रिव्यू देखा तो
कुछ बैचेन हो गए। बार-बार देखा। बात बनती नहीं दिखी। दोस्तों-हमदर्दा को दिखाया। सबने
खूब सराहा। राजसाब को तसल्ली हुई। ख्याल आया कि दुनिया के करने से पहले किसी वर्ल्ड
क्लास हस्ती से मोहर लगवाई जाये। कई नाम उनके ज़हन में आये। आख़िरकार एक जगह निगाह रुकी।
इनकी स्टाईल और सोच के बेहद क़ायल थे राजसाब। मन ही मन उनसे प्रतिस्पर्धा की चाहत भी
रखते थे। वो थे - सत्यजीत रे। क्लासिक फिल्में बनाने में माहिर और वर्ल्ड सिनेमा में
आईकॉन।
राजसाब ने सत्यजीत रे को
न्यौता भेजा। रे साहब बंबई तशरीफ़ लाये। रेड कारपेट वेल्कम हुआ। राजसाब के चेहरे की
चमक बता रही थी कि रे साहब वर्ल्ड क्लास फिल्में सिर्फ आप ही नहीं हम बालीबुड वाले
भी बना सकते हैं। हम किसी चौधरी से कम नहीं।
सत्यजीत रे जानते थे कि
राजकपूर इससे पहले ‘बूट पालिश’, ‘आवारा’, ‘जागते रहा’े और ‘जिस देश में गंगा
बहती है’ जैसी क्लासिक फिल्में बना
चुके हैं। वो उनके मुरीद थे। मगर ‘मेरा नाम जोकर’ इन सबसे कई कदम
वाला क्लासिक होने जा रहा था। रे साहब देख लें एक बार। राजसाहब को पूरा इत्मीनान था
कि रे साहब इस पर मोहर लगा देंगे।
एक स्पेशल शो हुआ। रे साहब
ने बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ फिल्म देखी। इस बीच राजसाहब की नज़रें बराबर रे साहब
के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भावों को पढ़ने की कोशिश में लगी रहीं।
फिल्म खत्म हुई। सबकी नज़रें
रे साहब की ओर उठ गयीं। रे साहब बहुत गंभीर थे। बोले - राज आपकी फिल्म तीन पार्ट में
है। पहला पार्ट बेहद अच्छा है, वर्ल्ड क्लास। इसे पहले रिलीज़ कर दें। दूसरा पार्ट बढ़िया
इंटरटेनमेंट है। तीन महीने बाद रिलीज़ करो। सुपर हिट होगा। और तीसरा पार्ट स्क्रैप कर
दो।
सब हैरान-परेशान। राजसाब
के सीने पर तो बिजली सी गिरी। सत्यजीत रे क्या फ़रमा रहे हैं?
राजसाहब ने अपने जज़्बात
कंट्रोल किये। रे साहब से वादा किया कि उनके सुझावों पर गौर किया जाएगा। लेकिन सच यह
है कि धेला भर भी गौर नहीं किया। और जस की तस फ़िल्म रिलीज़ कर दी। नतीजा क्या हुआ? फ़िल्म औंधे मुंह
जा गिरी बाक्स आफिस पर। उम्मीद के विपरीत प्रेस से अच्छे रिव्यू भी न मिले। किसी भी
दृष्टि से वर्ल्ड क्लास नहीं हो सका जोकर।
राजसाहब को जोकर की नाकामी
का ज़बरदस्त झटका लगा। वर्ल्ड क्लासिक बनाने का सपना टूट गया। नाकामी से उबरने के लिए
युवा लवस्टोरी ‘बाबी’ बनानी पड़ी। इसकी
बेमिसाल कामयाबी से आर्थिक नुक्सान की तो भरपाई तो हो गयी मगर जोकर की नाकामी से टूटे
दिल से उठती टीस बरकरार रही। काश! सत्यजीत रे की बात मान ली होती।
नोट-ये किस्सा हमें आनंद
रोमानी ने बताया था। वो अरसे तक राजकपूर कैंप से जुड़े रहे। बाद में रोमानी ने तुम हसीं
मैं जवां, ब्रम्हचारी, खलीफा आदि दर्जन भर फिल्मों
के संवाद लिखे थे।
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१५-१२-२०१५ mob 7505663626
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Lucknow-226016
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