-वीर विनोद छाबड़ा
दफ़्तर का नज़ारा। सुबह दस बजे। मीराजी कार्यालय पहुंची। उसके माथे पर बनी गहरी लकीरों, चेहरे और गर्दन पर
की झुर्रियों से बहता पसीना उनके संघर्ष की कहानी बयां कर रहा है।
बड़े बाबू पहले से विराजमान हैं। फाइलों में गुम हैं। चारों ओर फाइलों का अंबार
है। मीरा मुखातिब होती है - आदाब, रिज़वी साहब। कल शाम मैंने आपको इसी हालत
में छोड़ा था। घर नहीं गए क्या?
बड़े बाबू हंसे - अभी कोई घंटा भर पहले आया हूं। सोचा कुछ फाइलें निपटा लूं। लेकिन
सब पेचीदा हैं। सब चलताऊ काम करते हैं। ढंग से करते होते तो यह दशा न होती। एक दिन
इसी में दफ़न होना है।
तभी सरिताजी दाखिल होती हैं। वो रोज़ाना इसी वक़्त आती हैं। मजबूरी है। पति एक प्राइवेट
फर्म में ऊंचे ओहदे पर हैं। उन्हें वक़्त पर जाना पड़ता है। सरिताजी को ड्राप करते हुए
जाते हैं। यों भी सरिताजी ऑटो और बसों में धक्के खाने की आदी नहीं हैं। गर्दन में मोच
आ जाती है और मेकअप धुल जाता है। आते ही उन्होंने हेलो-हेलो की। पर्स में से शीशा-कंघी
और लिपिस्टिक-पाउडर निकाल बिगड़े मेकअप को संवारने में जुट गयीं।
मीराजी फाइलों के पहाड़ों की वैली में खो गयीं। जो ज्यादा काम करता है उसे ही गधे
की तरह लादा जाता है।
सरिताजी का मेकअप का काम खत्म हो चुका है। चपरासी को तलब करती हैं -परिदीन, तीन चाय तो आना। थोड़ी
एनर्जी मिले तो काम शुरू करूं।
परिदीन इसी आर्डर के इंतज़ार में था। तीन की चार चाय बनायेगा। चौथी चाय वो पियेगा।
साढ़े ग्यारह बजा। शिवबाबू और उनके पीछे सुभाषजी दाख़िल हुए। आते ही डीए पर बात शुरू
कर दी। अभी पिछला नहीं मिला है। लेकिन आगे की बात कर रहे हैं।
सुभाषजी ने घडी देखी - अरे परिदीन,
भाई पंचायती चाय ले आओ। तब तक बाकी लोग भी आ जायेंगे। लो रमा
भी आ गयीं हैं और लक्ष्मण प्रसादजी भी। सौरव भी आता ही होगा।
सौरव दफ्तर आने से पहले गंज का चक्कर ज़रूर लगाता है। युवा जो ठहरा।
हरीशजी और शिखा बारह बजे के आस-पास आते हैं। हरीशजी को ऑटो नहीं मिलता और शिखा
की स्कूटी अक्सर जाम में फंसती है या पंक्चर होती है। एक बजे तक सेक्शन की स्ट्रेंथ
पूर्ण हो जाती है।
सरिताजी दूसरे सेक्शन में कार्यरत अपनी सहेली से मिलने गयीं हैं और शिवबाबू का
कोई मिलने वाला आ गया है। वो उसे चाय पिलाने के बहाने खिसक गए हैं। सुभाष कान खुजाते
देर से मोबाइल पर किसी से बतिया रहे हैं। शिखा ट्रैफिक सिस्टम को लेकर परेशान हैं।
सौरव अपनी टेबल पर पड़ी धूल को ले कर परिदीन को डांट रहा है।
शिवबाबू एक फाइल पढ़ रहे हैं। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। फिर लिखा - पत्रावली अवलोकनार्थ प्रस्तुत। विचारधीन पत्र स्वतः
स्पष्ट। उच्चादेश हेतु प्रस्तुत। अरे दो बज गए। लंच टाइम।
मीराजी ने अपना छोटा सा लंच बॉक्स उठाया और बड़े बाबू से आज्ञा लेकर कैंटीन को रवाना
को रवाना हो गई। लंच खत्म हुआ तो सबसे पहले मीराजी ही लौटती हैं। उसके बाद साढ़े-तीन
तक बाकी सब। पंद्रह मिनट हुए होंगे कि सौरव ने हरीशजी के कान में कुछ फूंका और धीरे
से खसक लिया। सुभाषजी और शिवबाबू में हालिया बजट को लेकर ज़बरदस्त बहस छिड़ गयी। बड़े
बाबू को दखल देना पड़ा।
उसके बात शिखा निकल गयी। ट्रैफिक में फिर फंस जाउंगी। सरिता के पति का फ़ोन आ गया।
वो भी चल दी। लक्ष्मण प्रसाद जी ने पंचायती चाय का आर्डर दिया।
साढ़े-चार बज चुका था। पांच बजने में टाइम ही कितना था। पौने पांच बजे तक कम्पलीट
सन्नाटा। बस बड़े बाबू और मीरा जी ही बचे रहे।
पांच बजे मीराजी ने भी बेग उठाया। उन्हें अभी ऑटो के लिए तीन जगह झूझना होगा। रस्ते
में कहीं सब्जी-भाजी भी लेनी होगी।
बड़े बाबू उनका आभार व्यक्त करते हैं- आप मदद न करती होतीं तो ये सेक्शन चलाना बेहद
मुश्किल होता। मुझे अभी आठ बजे तक बैठना होगा।
फिर परिदीन से कहते हैं - एक चाय ला दे फिर तू भी जा। मैं ताला लगा दूंगा। और बाहर
सिक्योरिटी गार्ड से बोल देना मैं अभी अंदर हूं।
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