-वीर विनोद छाबड़ा
हिंदी सिनेमा में एक दौर मुज़रों का हुआ करता था।
वक़्त बदला। समाज बदला। मूल्य व मान्यताएं बदली। मिजाज़ बदला।
रहन सहन बदल गया। इस बीच पुरानी इमारतें ढह गयीं। नई खड़ी हो गयीं। काफी कुछ बना। बिगड़
भी गया।
इसी तरह फिल्मों में मुजरे भी गुज़रे ज़माने की याद बन कर रह गए।
अब इनकी सूरत बिगड़ कर आइटम सांग हो गयी है। पुरानी फिल्मों के मुज़रे बड़े सारगर्भित
हुआ करते थे। शब्द भी और मुजरे वाली की देहभाषा के हावभाव और गायिका के स्वर के उतार-चढ़ाव
में भी अर्थ था। अश्लीलता भी होती थी तो ढकी-छुपी। साकिया आज मुझे नींद नहीं आयेगी
सुना है तेरी महफ़िल में रतजगा है.…जो मैं होती राजा तेरी चमेलिया…कहो जी तुम क्या क्या खरीदोगे…ठाड़े रहियो ओ बांके यार.…इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा…इन आंखों की मस्ती ने.…सलामे इश्क मेरा क़बूल कर लो.… दिल चीज़ है क्या मेरी जान लीजिए…आदि बेशुमार मुजरे हैं।
इसी कड़ी में एक फ़िल्म याद आती है 'ममता'. इसका एक गज़ब मुजरा याद आता है। एक-एक शब्द बहुत कुछ कहता है। आंख बंद करके सुनें
और विसुलाइज़ करें तो बहुत सुखद अनुभूति होती है। मज़रूह सुल्तानपुरी ने लिखा और रोशन
ने स्वरबद्ध किया था।
इसे बांग्ला फिल्मों की जान सुचित्रा सेन पर फिल्माया गया था।
सुचित्रा ने मां-बेटी का डबल रोल किया था। बेटी के हीरो नायक उस दौर के उभरते अदाकार
धर्मेंद्र थे। आत्म ग्लानि से सिकुड़ते हुए और असमंजय में इधर से उधर डोलते अशोक कुमार
भी थे दिखे थे इस मुजरे में। निर्देशन असित सेन ने किया था, जो सुप्रसिद्ध निर्देशक
बिमल राय के सहायक हुआ करते थे कभी।
बहरहाल गाने के बोल हैं -
रहते थे कभी जिनके दिल में, हम जान से भी प्यारों
की तरह
बैठे हैं उन्हीं के कूचे में, हम आज गुनहगारों की
तरह…
दावा था जिन्हें हमदर्दी का, खुद आके न पूछा हाल
कभी
महफ़िल में बुलाया है हमपे, हंसने को सितमगारों
की तरह.…
बरसों से सुलगते तन मन पर, अश्कों के छींटे तो
दे न सके
तपते हुए दिल के ज़ख्मों पर, बरसे भी तो अंगारों
की तरह.…
सौ रूप धरे जीने के लिए, बैठे हैं हज़ारों ज़हर
पिए
ठोकर न लगाना हम खुद हैं, गिरती हुई दीवारों
की तरह....
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