Friday, October 23, 2015

मैंने ऐसा तो नहीं कहा था!

-वीर विनोद छाबड़ा
नेता - मंत्री किसी भी पार्टी के हों। ज्यादातर को अपनी ज़ुबान पर कंट्रोल नहीं है।
कदम कदम पर फ़िसलन है और गड्ढे हैं, खाइयां भी हैं। मगर फिसलती
ज़ुबान ही है। खुद नहीं गिरते कभी। एक नेता विरोधी साहब कह रहे थे - जो पहले से गिरा हो वो क्या गिरेगा। यों इनकी ज़ुबान ही इनको गड्ढे में ढकेलने के लिए काफ़ी है।
जब गिरने का अहसास होता है तो सारा ठींकरा प्रेस पर थोप दिया - मेरी बात तरोड़-मरोड़ कर पेश की गयी है.मेरा आशय यह नही वो था.अगर किसी का दिल दुखा है तो माफ़ी मांगता हूं.
अभी-अभी एक मंत्री जी इंसान के मरने पर दुःख जताते-जताते जाने कहां से कहां पहुंच गए। कुत्ते को पत्थर मारने की बात कर बैठे।
इसी तरह एक और भी थे जो कभी दुःख प्रकट करते हुए कह बैठे थे - कुत्ता भी कार के नीचे दबता है तो दुःख होता है।
ठीक है मंत्री जी का आशय ऐसा नहीं रहा होगा जैसा कि चैनल और सोशल मीडिया बता रहा है।
अरे भाई, नाराज़ न हों। रुकिए और सुनिए। उनकी गलती नहीं है। सबके अपने अपने सौंदर्यबोध होते हैं। बोलने वाले के भी और सुनाने-सुनने वालों के भी। इसी तरह स्क्रिप्ट लिखने वाले और पढ़ने वालों के भी सौंदर्यबोध हैं।
यों क़दम क़दम फिसलती ज़ुबान और नतीजे में बेड़ा ग़र्क़ का मज़ा लेना हो बिहार चलिये। चुनावी मौसम है। सारी पार्टियों के नेताओं के एक से बढ़ कर एक जुमले भी हैं और वादे भी।
हम तो कहते हैं कि एक कानून बना दो। चाहे नेता जी हों या मंत्री जी। जो भी भाषण दें लिखित हो, चाहे वो किसी के दिवंगत होने पर हो या चुनावी। फिर उसकी प्रतिलिपि बांट दें। जिसने न सुना हो अथवा सुनने से लाचार हो, वो भी निहाल हो जाए। जिन नेताओं को भाषण देने की कला का सर्वथा अभाव होता है वो भी निहाल। स्क्रिप्ट राइटर्स की डिमांड बढ़ जायेगी। रोज़गार का नया जरिया। हम जैसे निठल्ले रिटायर लोगों को भी काम मिल जायेगा।
सबसे बड़ी बात तो यह कि  नेता-मंत्री यह तो नहीं कहेंगे - मैंने ऐसा तो नहीं कहा था।
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