-वीर विनोद छाबड़ा
मैं लखनऊ में रहता हूं। संख्या तो नहीं बता सकता लेकिन जहां भी जाईये, गऊ-माताओं, उनके बच्चों और सांडों
के खुले दर्शन हो जायेंगे। ज्यादातर बीमार-ठीमार। हड्डियां गिन लो। जनता तरस खाती है।
मगर क्या मज़ाल
कि कोई अपने घर के आगे खड़ा होने दे- गंदगी फ़ैलाती हैं।
उन पर तरस खाने वाले लोग भी हैं। नज़र बचा कर इधर-उधर देखा और बची हुई रोटियां, दाल-सब्जी पड़ोसी के
घर के बाहर डाल दी। मटर के छिलके और तुरई-लौकी की छीलन भी। ऐसे ही तमाम आईटम। इधर-उधर
विचरती गऊ मातायें साफ़ कर देंगी।
धर्म के अलमबरदार बहुत गुस्सा करते हैं - क्यों देते हैं इन्हें खाने को? सालियां यहीं गोबर
और मूत्र त्याग कर गंदगी फ़ैलाती हैं।
वो सुबह से शाम तक डंडा लेकर दौड़ाते-फिरते हैं- कांजी हॉउस में क्यों नहीं बंद
करती सरकार?
कभी यह हज़रत गऊ पाले थे। जैसे ही दुहने बैठते गऊ उन्हें लात मार देती। झल्ला कर
खूब पीटते गऊ को। हार कर गऊ बेच दी। तब से उनकी गऊ से अदावत है। लेकिन कोई दूसरा गऊ
को बुरा-भला कहे तो मिर्ची लग जाती है।
एक दूसरे सज्जन आपत्ति करते हैं- कांजी हाउस में भूखी मर जायेंगी। यहां कुछ तो
मिलता है। खदेड़ देतें हैं सड़क के उस पार।
हमदर्दी जताने वाले एक और भी हैं- अरे एक आध रहने दीजियेगा।
उनको किसी ज्योतिषी ने बता रखा है गाय को रोज़ दो रोटी और पांच किस्म की दाल महीना
भर खिलाओ। कृपा आएगी। सारे दुःख-दलिद्दर ख़तम समझो।
मुझे याद है वो ज़माना जब चोकर गऊ माता को डाला जाता था। एक नहीं कई-कई गऊएं एक
साथ टूट पड़ती थीं। एक दुकान के बाहर आटे के बोरे में गऊ माता ने मुंह मार दिया। दुकानदार
ने बहुत मारा उसको। बेचारी लहू-लुहान हो गिर पड़ी। टांग टूटी थी। राहगीरों ने विरोध
किया तो मार्किट के सारे दुकानदार एकजुट हो गये।
मंदिरों में मोटी रक़म चढ़ाएंगे, मगर न गऊशाला बनवायेंगे और न ही चंदा देंगे। चंदा लेने वाले भी शक़ के घेरे में
हैं। गऊ नहीं खुद खायेंगे।
जन्म हो या मरण या शादी-ब्याह। पूजा-पाठ वाले पंडित जी गऊ दान के नाम पर १०१ रुपया
वसूल लेते हैं। आवारा विचर रही गऊ को दान में नहीं लेंगे।
मुझे वो रात भी याद है। मैं साईकिल से आ रहा था। गाना गुनगुनाता हुआ - कभी तो मिलेगी
बहारों की मंज़िल राही…अचानक धड़ाम से जा गिरा। गऊओं के झुंड पर। किसी गाय ने मुझे सींग पर खड़ा कर दिया
था। बहुत रोया था मैं। दर्जन भर टांके भी लगे थे।
कई साल पहले की बात है। पूजा के लिये मैं पंडित जी को तलाशता एक कस्बे में जा पहुंचा।
एक ने कहा उस गली में चले जाओ। जहां गैया बंधी दिखे समझो वही है घर बलदेवा पंडित का।
आज वहां चार मंज़िला मकान है। भारी-भरकम सुव गाड़ी है और गऊयें कूड़ाघरों पर या सड़क पर
मारे-मारे घूम रही हैं। खिलाने को नहीं हैं और फिर दिन भर गोबर…आसपास वालों को ऐतराज
होता है।
लेकिन जैसे ही अफ़वाह उड़ती है कि गऊ को काटा। त्यों ही तमाम लोगों के दिलों में
गऊ प्रेम का ज्वार ठाठें मारता है।
अरे भई, जब गऊ से इतना प्यार है तो गऊ भक्त एक-एक गऊ अपने घर में रख क्यों नहीं लेते? सरकार पूरे मुल्क में
इसके काटने पर बैन क्यों नहीं लगा देती?
इसके मीट के निर्यात पर बैन क्यों नहीं लगाती? मुद्दा ही ख़त्म हो
जाये।
वाह साहब! आप भी अजीब बात करते हो। यही तो मुद्दा है। इसे ही ख़त्म कर दोगे तो वोटों
के ध्रुवीकरण कैसे होगा? चुनाव किस बात पर लड़ेंगे?
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