Saturday, October 24, 2015

सहज ही अपना बनाने की कला में सबसे आगे बिहार वाले।

-वीर विनोद छाबड़ा
आजकल बिहार में चुनावी सरगर्मियां बहुत तेज़ हैं। आये दिन रैलियां। आज उसकी तो कल उसकी। किसी की रैली में अपार भीड़ तो किसी की रैली में
सन्नाटा। कुछ दिन पहले एक नेता जी की एक रैली में अपेक्षित भीड़ नहीं जुटी। उन्होंने झुल्ला कर बिहारियों को बेवकूफ़ कह डाला।
इस बयान का नफ़ा-नुक्सान कितना होगा यह तो चुनाव पंडित जानें। लेकिन मुझे बिहारियों को बेवकूफ कहने पर दिली तकलीफ़ हुई। मुझे तो लगता है बिहारियों से ज्यादा चतुर कोई और है ही नहीं। सत्तर के शुरुआती दशक में लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरा कई बिहारी छात्रों से साबका पड़ा। सबसे ज्यादा मुझे आकर्षित किया इनकी भोजपुरी भाषा ने। शीरीं ज़बान। इतनी मिठास तो उर्दू बोलने वाले भी नहीं घोल सके। दो बिहारियों को बोलते हुए जब भी सुना तो मन हुआ कि ये कभी चुप न हों। 
भोजपुरी का मैं सबसे पहली बार तब क़ायल हुआ जब १९६२ में 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' देखी थी। वो स्कूली दिन थे। उसके बाद कई भोजपुरी फ़िल्में देखीं। लेकिन पहली बार 'भोजपुरी लाईव' लखनऊ यूनिवर्सिटी में ही सुनी।
मैं इंदिरा नगर में अस्सी के दशक की शुरुआत में ही आ गया था। यह इलाका तब अर्ध-निर्मित हो रहा था। एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी होने का दावा गया था तब इसे। साठ प्रतिशत श्रमिक बिहार के सासाराम, सीवान आदि क्षेत्रों से ही संबंधित थे। मेरा घर बनाने वाले भी बिहार के थे। बगल में विशिष्टजन हेतु बना गोमती नगर भी इन्हीं बिहारियों की मेहनत के दम से बना। आज भी पांच में तीन मज़दूर-मिस्त्री-कारीगर बिहार के ही हैं। 
सत्तर के दशक में यूपी स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बॉर्ड में नौकरी शुरू की तो वहां एक्का दुक्का ही बिहार से संबंधित मिले। लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ने लगी।
अपने अड़ोस-पड़ोस में भी खासी संख्या में हैं। सब स्थाई निवासी हो गए हैं यहां के।  मेरे पड़ोसी सासाराम से हैं। अपने घर का नाम भी 'सासाराम निवास' रखे हैं। मैंने इनमें एक विशेषता देखी है कि किसी को सहज ही 'विधिवत' अपना बना लेते हैं। व्यवहार से भी और ज़ुबान से भी। इस मामले में पंजाबियों से ये निश्चित ही बीस हैं।
आप अगरबिहारी बाबू के मित्र हैं तो संकट के समय दीवार बन जायेंगे। लड़ने-भिड़ने के साथ-साथ ज़रूरत पड़ने पर जान भी दे देंगे।

मेरे पास आंकड़े नहीं हैं, लेकिन सुनी हुई बात है कि बिहार के लोग हिसाब-किताब में बहुत तेज होते हैं। कभी कहा जाता था कि आईएएस और आईपीएस में बिहार के लोग ही ज्यादा हुआ करते थे। यूं हमारे एक बिहारी मित्र का कहना है कि आज भी ज्यादा हैं। बहरहाल इसके अलावा साहित्यिक पुस्तकें और पत्र-पत्रिकायें भी यहीं खरीदी और पढ़ी जाती थीं। सैकड़ों साल पहले शिक्षा का केंद्र यहीं नालंदा में ही तो था। कूटनीति सिखाने वाले चाणक्य की जन्मभूमि और कर्मभूमि बिहार ही तो है। यहीं के कौटिल्य ने ही अर्थशास्त्र पढ़ाया है। गणित के मर्मज्ञ आर्यभट्ट को भला कौन भूल सकता है। अशोका दि ग्रेट भी यहीं पैदा हुए। बुद्ध की कर्मभूमि यही रही। पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इसी बिहार की देन हैं। 
यह बिहार ही है जहां बोलचाल में सबसे ज्यादा अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग होता है। दिवंगत शरद जोशी भी कह गए हैं कि अंग्रेज़ कौम और अंग्रेज़ी अगर ख़त्म भी हो जाए तो भी कब्र में लेटी अंग्रेज़ों की आत्माओं को तसल्ली रहेगी कि अंग्रेज़ी बिहार के चप्पे चप्पे में ज़िंदा है। और फिर क्रांतियों का जनक तो बिहार रहा ही है। कई बार रथों के रास्ते भी रोके हैं और बदले हैं इसने।
यूं एनडीटीवी के रवीश के प्राईम टाईम को देखते हुए लगता है मैं उनके साथ बिहार घूम रहा हूं। सदभाव और भाईचारे की मिसालें दिख रही हैं।
आदमी चाहे छोटा हो या बड़ा, ये बिहार वाले जहां भी जाते हैं, अपनी हाड़-तोड़ मेहनत और बौद्धिकता से उस प्रदेश और उस देश के नमक का हक़ ज़रूर अदा करते हैं। 
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