-वीर विनोद छाबड़ा
जब कभी
गुईन रोड से गुज़रता हूं तो एक जगह मेरे कदम ठिठक जाते हैं। यह मेहरा टाकिज़ है। चार
साल से बंद है। क़रीब ५१ साल पहले का वो नज़ारा याद आता है।
मैं दसवें
में ताज़ा ताज़ा दाख़िल हुआ था। उस दिन स्कूल में मैथ का टेस्ट था। कतई तैयारी नहीं थी।
मुझे डर टेस्ट में नाकाम होने से नहीं बल्कि उस फ़ज़ीहत से था जो टीचर भरी क्लास में
किया करते थे।
मेरा
एक दोस्त था, मन्ने।
मेरे ही स्कूल में पढता था। वो नवें में था। संयोग से हम एक ही कॉलोनी में भी रहते
थे। साथ-साथ स्कूल आना-जाना भी था।
उस दिन
उसे भी क्लास में कुछ गड़बड़ी की आशंका थी।
हम दोनों
में आंखों आंखों में बात हुई। और स्कूल बंक करके अमीनाबाद टहलने चल दिए। टाइमपास के
लिए एकदम मुफ़ीद जगह।
टहलते-टहलते
अमीनाबाद से जुड़े हम गुईन रोड पर मेहरा टॉकीज़ के सामने आ खड़े हुए। हॉफ-रेट की पुरानी
फ़िल्मों का क़रीब तीन-साड़े तीन सौ सीटों का हॉल। बीच बाज़ार में होने के कारण अक़्सर ठसा-ठस
भरा रहता था। उस दिन प्रदीप कुमार-मधुबाला की 'पुलिस' लगी थी।
मन्ने
ने प्रस्ताव रखा - गुरु क्यूं न पिक्चर देखी जाये?
सुझाव
तो बढ़िया था। लेकिन मन में थोड़ा डर था। आज तक हमने पिता जी के साथ ही पिक्चर देखी थी।
मन्ने
ने समझाया -यहां कौन देख रहा है? पिक्चर और स्कूल छूटने का टाईम तो एक ही है। किसी को पता ही नहीं कहां से आ रहे
हैं।
बात जम
गयी। लेकिन किस्मत ख़राब कि हमारा नंबर जैसे ही आया ४० पैसे वाली खिड़की बंद हो गयी।
८० पैसे वाली क्लास की खिड़की खुली थी। मगर हम दोनों की जेब की कुल जमा पूंजी नाकाफ़ी
थी। चवन्नी कम।
हम निराश
मन और भारी क़दमों से वहां से लौट ही रहे थे कि अचानक हमें रमेश दिखा।
वो हमारी
कॉलोनी की मेहतरानी का बेटा। जो अक्सर मां के साथ हाथ बटाता हुआ दिखता था।
हमारे
कदम रुक गए। उसने भी हमें देख लिया था। वो तनिक झिझकता हुआ हमारे पास आया।
पिक्चर
देखने आया है?
उसने
सर हिला दिया।
गरज और
ज़रूरत इंसान से कुछ भी करा देती है। हमने उससे पूछा कि तेरी जेब में चवन्नी फालतू है?
उसने
हां में जवाब दिया। हम उछल पड़े। बल्ले बल्ले। उसे गले लगा लिया। हम तीनों ने एक साथ
बैठ कर पिक्चर देखी।
टूटी
हुई पटरीनुमा बेंचें। बीड़ी-सिगरेट के धुएं की बदबू। बहुत ऊंचे लगे खड़खड़ करते पंखे।
हवा ही नहीं मिल रही थी। भयंकर उमस। पसीने से तरबतर बदन। कपड़े भीग गए। गाली-गलौज और शोर-शराबा। धुंधली तस्वीरें।
और खरखराता साउंड सिस्टम। हमने पहली बार जाना था कि सिनेमाहाल ऐसे भी होते हैं।
लेकिन
इन कमियों से हमारा उत्साह ठंडा नहीं हुआ। उस दिन हमें रमेश के कपड़ों से कतई बदबू नहीं
आई। इंटरवल में बेसन की सेंव भी ले आया, जिसे हमने बड़े चाव से खाया।
पिक्चर
ख़त्म हुई। और उधर हमारे दिलों की धुक-धुकी तेज
हुई। ये रमेश कही हमारे घर में पोल
न खोल दे? हमने
हाथ जोड़ उससे चिरौरी की। भैया किसी को कुछ बताना नहीं। वरना हम खूब पिटेंगे। उसे हल्का
सा धमकाया भी। अगर हम पिटे तो तुम भी पिटोगे। एहतियातन उसे क़सम तक खिला दी। उससे वादा
भी किया कि उसे चवन्नी की बजाय तीस पैसे लौटाएंगे।
उस दिन
हम डरते हुए घर पहुंचे। दिल की धुकधुकी बड़ी तेज़ हो चुकी थी। हमें ये भी डर था कि कॉलोनी
के किसी घुमंतू लौंडे ने न देखा हो। एक से बढ़ कर एक शिकायती टट्टू होते थे वहां।
शाम को
हम मिले। एक-दूसरे दिलासा दी। सब ठीक ही चल रहा है गुरु। इसी तरह तीन-चार रोज़ गुज़र
गए। अब डर खत्म हो गया। और हौंसला बढ़ गया।
आगे चल
कर पिक्चरबाज़ी के सफ़र में ये 'पुलिस' स्टेपिंग
स्टोन साबित हुई।
रमेश
को हम उसकी चवन्नी वापस नहीं कर पाये। उसकी मां काम छोड़ कर जाने कहां चली गई। हमने
बरसों उसे तलाश किया, गलियों-मोहल्लों और सिनेमाहालो में। वो नहीं दिखा।
मन्ने
और मैंने कई साथ-साथ अनगिनित फ़िल्में देखी। इस सफ़र की इतिश्री शादी के साथ हुई।
मन्ने
अब इस दुनिया में नहीं है। लेकिन मेरी आंखें अब भी रमेश को तलाशती हैं। पता नहीं वो
है भी कि नहीं और अगर है भी तो किस शेप में। हो सकता है हम आमने-सामने हुए हो हों कभी।
लेकिन न वो मुझे पहचान सका और न मैं उसे। ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकां
वो फिर नहीं आते।
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१२-१०-२०१५
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