-वीर विनोद छाबड़ा
हमें याद है। साठ और सत्तर का दशक। हम चारबाग़ स्टेशन के सामने रेलवे की मल्टी स्टोरी
बिल्डिंग में रहा करते थे।
शाम हुई नहीं कि वहां फुटपाथ पर अनगिनित छोटे-छोटे ढाबे सज गए। पूरा भोजन रेडीमेड।
घर से रिक्शों पर लाद कर लाया जाता था। सब कुछ बड़े-बड़े पतीलों में। पूड़ी-रोटी, अरहर की दाल, चावल, बैंगन आलू की सब्ज़ी, उबले हुए मसालेदार
आलू और सूजी का हलवा।
मुसाफ़िर, कूली, मज़दूर, रिक्शा और तांगेवाला आदि वाला सर्वहारा वर्ग इनका ग्राहक होता था।
यह रेडीमेड ढाबे अगले दिन सुबह तक चलते थे।
हमें यह भी याद है कि ग्राहकों को अपनी ओर खींचने के लिये ये ढ़ाबेवाले ज़ोर ज़ोर
से चीखते थे - आईये आईये। दो रोटी के साथ दाल फिरी...एक प्लेट चावल के साथ दाल फिरी…
आसपास हिंदू-मुस्लिम पक्के होटल भी ढेर थे। सुना है वहां भी चावल और रोटी के साथ
दाल फ्री थी।
हमने कभी खाई तो नहीं, लेकिन कई बारे झगड़ा होते देखा था।
भूखा आदमी चीखता होता था - दाल में,
दाल तो हइयो ही नहीं। पानी में दाल घोल कर दे दियो हो। डुबकी
लगाये से भी नाहीं मिलत।
दुकानदार भी कम नहीं होता था - फिरी की दाल में पानी नहीं तो क्या हाथी लेहयो?
आजकल तस्वीर बिलकुल उलट है। सुना है पनिहर अरहर की दाल के साथ एक बच्चा साईज़ रोटी
और मुट्ठी भर चावल फिरी।
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30-10-2015 mob no. 7505663626
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