Monday, October 26, 2015

घरेलू कुत्ता और बाज़ारू कुत्ता।

-वीर विनोद छाबड़ा
बाज़ारू कुत्ते और पामेरियन घरेलू कुत्ते में दोस्ती हो गयी।
घरेलू बता रहा है। वो सबका दुलारा है। डाईनिंग टेबुल पर सब मिल कर खाना खाते हैं।  मैं भी आस-पास मंडराता हूं। मेरी तरफ खाने का टुकड़ा
फेंका जाता है। मैं उछल कर हवा में ही लपक लेता हूं। इस करतब पर खूब ताली बजती है। तीन वक़्त दूध-ब्रेड और ग्रेनूल्स। हफ्ते में दो बार उबला हुआ कीमा भी। बड़ा टेस्टी होता है। महीने में एक दफ़े पिकनिक। वहां सब खूब खेलते हैं। संग में मैं भी। मौजां ही मौजां हैं। कभी तबीयत खराब हुई तो फौरन डाक्टर आता है। जानवरों और इंसानों के अलग-अलग डाक्टर हैं। उस दिन आया कह रही थी कि मेमसाब, कुत्तों वाले डाक्टर आये हैं।
बाज़ारू बताता है। अपनी ज़िंदगी तो कुत्ते वाली है। हम छह भाई-बहन थे। दो को स्कूटी ने कुचल दिया। दो सड़क पार करते हुए ट्रक तले दब गए। एक का पता नहीं। मां सड़क पार रहती है। कभी-कभी जाता हूं उससे मिलने। मगर वो डांटती है। मत आया कर। ट्रक के नीचे दब जायेगा। तभी तो हम अपनी मौत नहीं मरते। खाने के भी लाले हैं। महंगाई इतनी ज्यादा है कि कोई ज्यादा झूठन ही नहीं फेंकता। हड्डी भी बुरी तरह चूस कर फेंकते हैं। अब चुसी हड्डी को और क्या चूसना! जगह-जगह दुत्कारे और पीते जाते हैं। लेकिन फिर भी दुम हिलाते हैं। कभी-कभार बासी ब्रेड मिल जाने की उम्मीद तो होती है।
ये सुनते-सुनते घरेलू की आंखें नम हो आयीं।
बाज़ारू पुचकारता है - जो हमने दासतां अपनी सुनाई, आप क्यों रोये?
घरेलू कातर स्वर में बताता है -  मुझे तो मां याद ही नहीं। आंख भी नहीं खुली थी। मालिक कहीं से खरीद लाये थे। मालिक बहुत अमीर हैं। सरकारी विभाग में मुखिया हैं। बचपन आया की गोद में गुज़रा है। बोतल से दूध पिलाना, नहलाना, धुलाना। मगर रहा तो कुत्ता ही न। और गुलाम अलग से। वो कहें सिट तो बैठ गया और स्टैंड अप पर खड़ा हो गया। ज़िंदगी गुज़र गई इशारों पर चलते। खिलौना बना दिया। हां, ज़िंदगी लंबी है। मरते भी अपनी मौत हैं। लेकिन है बड़ी दुखदायी। साल भर हुआ जर्मन शेपर्ड मरा था। बहुत बुड्ढा हो गया था। दो साल ओवरटाईम कर चुका था। दिन-रात दर्द से कराहता था। डाक्टर ने बताया था कि इसे पैरालिसिस है और अर्थराईटिस भी। किडनियां और लीवर फंक्शन बेकार है। बीमारियों का पुलिंदा। विदेश ले जाओ। मालिक ने ईशारा किया। डाक्टर ने इंजेक्शन ठोंक दिया। ऊपर चला गया। बोरे में डालकर बड़े नाले में फेंकवाया। तुम्हारी ज़िंदगी छोटी ही सही, मगर है तो खुद की।  भले ही खाने को कम मिले, लेकिन तो जीते शान से हो।
 
तभी अचानक हड़कंप मचता है। मेमसाब के किट्टी पार्टी से लौट आयी हैं। घरेलू को गोदी लेती हैं। थोड़ी देर में बच्चे और फिर देर रात गए साहब लौटेंगे।
वाचमैन चीखा- अबे हट्ट...कुत्ता साला।
बाज़ारू दुम दबा कर खिसक लेता है।
इधर घरेलू रूंआसा हो उठता है। कल बाज़ारू के दर्शन होंगे कि नहीं? वो भगवान से प्रार्थना करता है कि उसके बाज़ारू मित्र को सबुद्धि देना कि वो सड़क पार नहीं करे।
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प्रभात ख़बर में प्रकाशित। 
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