-वीर विनोद छाबड़ा
जाने क्यों सारे दुखियारे मेरे ही पल्ले पड़े हैं। कल देर शाम एक मित्र आये। मेरा
दर्द न जाने कोय। हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना। तेरी दुनिया में लगता नहीं है दिल मेरा।
सब छोड़ संन्यास लेने का मन करता है।
बच्चे दूर-दूर भागते हैं। पत्नी को मैं नहीं अल्सेशियन चाहिये। सिट बोलो तो बैठ
जाये और स्टैंड अप पर खड़ा हो जाये। उतना ही करे जितना कि कहा जाये। आदर्श हैं उसके
पापा और जीजा जी।
मैंने समझाने की कोशिश की।
उन्होंने मेरे कंधे पर सर रख दिया। भलभला कर रो दिये। मेरा सुंदर सपना टूट गया।
इस कुत्तापन की ज़िंदगी से बेहतर है कि मर जायें।
जैसे-तैसे समझा-बुझा कर घर भेजा। पक्के दो घंटे जाया कर गए। इस बीच दो कप चाय सुड़की
और चार सिगरेट धुआं कर गए।
लेकिन अभी आठ घंटे भी न गुज़रे थे कि मित्र ने गेट ज़ोर-ज़ोर से भड़भड़ाया।
जल्दी से खोला न होता तो तोड़ ही डालते। पौ फटने को थी। हमें हैरत हुई। क्या हुआ
भाई।
बड़े जोश में थे वो। यह देखिये मैंने वसीयत कर दी है.… बा-होशो हवास मैं दीवाना
आज वसीयत करता हूं.…फौरन पढ़ कर फाईनल। आज ही कचेहरी में दाखिल करना है।
हमने सरसरी निगाह से देखा। बैंक अकाउंट, फिक्स्ड डिपॉज़िट,
लॉकर नंबर और उसमें रखा सामान। पेंशन और डिपार्टमेंट पर डीए
का बकाया एरियर आदि का ब्यौरा। इसके अलावा मरने के बाद कम ख़र्च में विद्युत शवदाह गृह
में फूंकना और हरिद्वार में अस्थि विसर्जन का विधि-विधान और उस आने वाला संभावित ख़र्च।
सुई से लेकर कार तक समस्त चल संपति का परिवार के प्रत्येक सदस्य के मध्य बंटवारा। आंगन
और लॉन तक में रखे गमलों तक का ज़िक्र था उसमें।
अचानक एक जगह मेरी निगाह ठहर गयी। पंद्रह मित्रों की सूची थी। इन्होने उनसे समय-समय
पर पैसा उधार लिया था, लेकिन चुकाया नहीं था। किसी के सामने दस हज़ार तो किसी के तीस हज़ार। दो पचास हज़ार
वाले थे और तीन अस्सी हज़ार वाले। एक साहब के नाम डेढ़ लाख था। इस सूची को 'तेरहीं' के दिन भरी महफ़िल में
बा-आवाज़-ए-बुलंद पढ़े जाने का आदेश था। वज़ह, ताकि शर्मिंदा हों यह उधार चंदू।
मैंने उस सूची को दोबारा-तिबारा पढ़ा। इत्मीनान हुआ कि मेरा नाम नहीं था। असल में
मैंने भी उनसे एक बार दस रूपये उधार लिए थे। मुझे याद है कि मैंने ससमय वापस कर दिए
थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने दो-तीन बार तगादा किया था।
मित्र भावुक आदमी हैं। बड़ी जल्दी ब्लैकमेल हो जाते हैं। दिया होगा उधार। सभी शातिर
उधारचंदू हैं। लेकिन इतनी लंबी रक़म?
कभी ज़िक्र तक नहीं। यकीन नहीं हुआ। कहीं फ़र्ज़ी वाड़ा तो नहीं? वो बोले - नहीं, कतई नहीं। पांच दस
हज़ार इधर उधर हो सकता है। अगर बैंक में रक़म होती तो दुगनी हो चुकी होती।
मैंने मश्विरा दिया- वसीयत तो ठीक है। लेकिन यह सन्यास लेने और परलोक जाने का प्रोग्राम
अभी मुल्तवी करो।
खासी मशक्क़त के बाद उन्हें समझा-बुझा कर उन्हें घर छोड़ा।
शाम दफ़्तर से लौटा तो देखा मित्र मेरे घर पर बैठे हैं। सुबह से बिलकुल उलट। चेहरा
गुलाब की तरह खिला-खिला। शारीरिक भाषा बता रही थी कि मन में मयूर नाच रहा है।
हम हैरान हुए। यह परिवर्तन क्योंकर?
वो चिहुंक उठे। जाने कैसे पत्नी जी ने वसीयत पढ़ ली। दुर्गावतार बन गयीं। पल भर
में डूबी हुई रक़म वसूल लायीं, मय ब्याज।
यार, कैसी भी हो, क्राइसिस में पत्नी ही काम आती है। आज फिर पूरी ज़िंदगी जीने की तमन्ना है।
नोट - आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना।
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16-10-2015 mob 7595663626
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Lucknow-226016
इस कहानी पर 'नाटक' दिखाने की व्यवस्था करिए। अच्छा रहेगा।
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