Tuesday, October 27, 2015

चाय में पार्लेजी की डुबकी।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज सुबह-सुबह फिर हादसा हो गया। पार्लेजी को चाय में डुबकी लगवाई ही थी कि टूट कर डूब गए, गर्मागर्म चाय में। उनका आधा मेरे हाथ में ही रह गया। लेकिन हमें कतई अफ़सोस नहीं हुआ। चाय के आख़िरी घूंट का इंतज़ार किया। और फिर वही किया जो बड़े से बड़ा दरियादिल भी करता है। चम्मच से तलहटी में ठाठ से बैठे बिस्कुट को थोड़ा-थोड़ा करके खा लिया।
हमें याद पड़ता है बचपन से लेकर अब तक हमने भांति-भांति के बिस्कुटों को चाय में डुबकी लगाई है। लेकिन जो मज़ा और स्वाद पार्लेजी को गर्म चाय में डुबकी लगाने पर मिला किसी अन्य बिस्कुट में नहीं। मुलायम इतने कि मुंह में रखते ही घुल जाते हैं।
यों पार्ले जी को अलग से खाने का भी स्वाद है। अक्सर लोगों को चबा कर खाते ही देखा है। लेकिन अपना स्टाईल कुछ अलग ही है। मुंह में बस रखे रहिये। अपने-आप घुल जाएगा। क्या कहने इस स्वाद के? इस स्वाद के पैदा होने की अलग कहानी है।
ऑफिस में काम करते करते हमें अक्सर भूख लगती थी। बिस्कुट तो हमेशा हमारी दराज़ में रहते ही थे। कई लोग तो सूंघने वाले अंदाज़ में बिस्कुट खाने हमारे पास आया करते थे। हमारी दराज़ भांति-भांति के बिस्कुटों से भरी रहती थी। लेकिन सबकी पहली पसदं पार्ले जी ही रही। बहरहाल, हम बता रहे थे कि काम करते-करते हमें भूख बहुत लगती थी। दराज़ से बिस्कुट निकाला और शुरू कर दिया खाना। हमें खाते देख गिद्ध की तरह दूसरे लोग भी झपट पड़ते। मिनट भर में पैकेट ख़त्म। इसी तरह दूसरा और तीसरा भी। स्टॉक ख़त्म। बड़ा नागवार गुज़रता था। 
तब हमने नयी स्टाईल ईज़ाद। बिस्कुट को चुपचाप मुंह में रख कर घुलने दिया। कुछ ही सेकंड में लार के साथ घुल-मिल गया बिस्कुट। स्वाद भी बिलकुल अलग।
हो सकता है कि मेरे इस कथन से मित्रों को घिनाई आ रही हो। छी छी। बच्चे हो क्या? यह क्या हर वक़्त जुगाली करते रहते हो? मुंह में दांत नहीं हैं क्या?
लेकिन एक बार आज़मा कर तो देखिये। न स्वाद आये तो पैसे वापस। हमें तो सील गए पार्लेजी का स्वाद भी निराला लगता है। हमारे पड़ोसी को हमारा यह अंदाज़ बिलकुल पसंद नहीं। उसे मठरी की चाय में डुबकी अच्छी लगती है। हादसे का ख़तरा न के बराबर। 
अब यह तो हमें याद नहीं कि पार्लेजी से हमारा नाता कितना पुराना है। जब होश संभाला था तो शायद जेबी मंघाराम के बिस्कुट होते थे। या फिर बेकरी से बनवा कर लाये हुए आटे वाले बिस्कुट। ज़बरदस्ती खिलाती थी मां।
लेकिन पार्लेजी ने आते ही सबको घर से बाहर कर दिया। स्वाद में अच्छा, पौष्टिक और दाम भी कम। अब तो आम आदमी क्या रिक्शावाला और मज़दूर की भी पहली पसंद है। बूढ़े और बच्चों को भी खूब पसंद है। बच्चे की पैकेट पर छवि जो बनी होती है।
कुछ लोग मेहमान के सामने प्लेट में पार्लेजी नहीं रखते। उनकी निगाह में पार्ले जी गरीबों का बिस्कुट है। यह क्रीम लगा चाकलेट वाला खाईये।
लेकिन हम कभी प्रशंसा नहीं कर पाये न उनकी सोच की और ही महंगे क्रीमी-चॉकलेटी बिस्कुट की। 

एक दिन हमने भिखारी को पांच रूपए की बजाये पार्लेजी का पैकेट थमा दिया। बोला - यह तो हम खाते ही रहते हैं। वो क्रीम वाला होता तो अच्छा रहता।
हमारे एक मित्र का कहना है कि एक ज़माना था कि पार्ले जी बिस्कुट के दो बिस्कुट के बीच में क्रीम होती थी। यह क्रीम हटा दी गई और ग्लूकोस आ गया। पार्ले के बाद 'जी' इसी ग्लूकोस के होने का संकेत है।   
नोट - क़सम से हम पार्लेजी के न तो प्रचारक हैं और न ही एजेंट। कोई रिश्तेदारी भी नहीं और न ही शेयर होल्डर। 
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