-वीर विनोद छाबड़ा
पतली मोहरी की जींस। घुटने फटे हुए। पोन्चे लीर-लीर हो रहे हैं। लड़के भी दिख रहे
हैं और लड़के भी।
हमें साठ के दशक का मध्य याद आ गया। हाई स्कूल में हुआ करते थे हम। पतली मोहरी
की पतलून का ज़माना। १२ इंची से १४ इंची तक।
पतलून पहनने के लिए और फिर उतारने के लिए बड़ी मशक्कत करी है हमने। कई बार आँख से
आंसू बहे। अब भाई वगैरह तो थे नहीं। बहनों को बुलाते शर्म लगती। मां को ही बुलाना पड़ा
अक्सर।
बेचारी मां कई बार अंगीठी से तवा उतार रसोई से आई। उस ज़माने में कोयले वाली अंगीठी
या फिर लकड़ी वाला चूल्हा था। हमारी पतलून खींचने के चक्कर में ईंधन वेस्ट हुआ करता।
बहरहाल, जैसे-तैसे उतरी पतलून।
मां ने कई बार डांटा - न जाने आजकल के लड़कों को क्या मिलता है ऐसी बदन से चिपकी
पतलूनें पहन कर? खुली पतलूनों में हवा
तो मिलती है। नासपीटों को कौन समझाये?
हम मां को फ़ायदा समझाते - यह चौड़ी मोहरी वाला पुराना फैशन है। नीचे से चूहा घुस
जाता। यह जो पतली मोहरी है न, इसमें चूहा तो दूर चींटीं तक नहीं घुस सकती। फिर कपड़ा भी तो कम खर्च होता है। ये
२४ इंच मोहरी वाली ढीली-ढाली पतलून भी कोई पतलून है। बिलकुल पायजामा। आदमी भी पायजामा
लगता है। मेरे जैसे तो दो घुस जायें। पिताजी से कहो कि वो भी दो अदद सिलवा लें। चौड़ी
मोहरी में बिलकुल थैला लगते हैं।
मां हंस देती थी।
पतली मोहरी वाली पतलून में बैठने में बड़ी मुश्किल होती थी। तेरवीं में तो बहुत
कष्ट हुआ। घुटनों के बल बैठना पड़ा। कई बार चर्र से फटी नीचे से।
अपने को तुर्रम खां समझने वालों की मोटी-पतली टांगों का भी पता चला। कुछ तो बंदूक
की नली की तरह पतली। हिप्स भी गायब। बड़ा मज़ाक उड़ाया जाता। बचे मोटी जांघों-टांगो और
भारी हिप्स वाले भी नहीं। कौन से चक्की का खाता है रे तू?
चूतड़ पर छड़ी मारने वाले मास्टरों की मौज रही। अक्सर पतलून चूतड़ और घुटनों से घिसनी
शुरू होतीं।
हमें याद है कई बारातें। नागिन वाला डांस करने वालों की कई बार नीचे से चिरीं पतलून।
उस ज़माने में घर के बड़े-बुज़र्ग ही नहीं स्कूल में टीचर तक टोका-टाकी करते थे। कभी-कभी
चेकिंग भी होती। पतली मोहरी वाले निकाल बाहर कर दिए जाते - ऊंठ कहीं का!
एक नामी कॉलेज के खुर्राट प्रिंसिपल ने एक दवा वाली पतली शीशी मंगाई। शर्त रखी
अगर अगर यह शीशी मोहरी में घुस गई तो कॉलेज के अंदर वरना नो एंट्री। ऐसा ही एक दरोगा
भी रहा। खूंखार इतना कि चोर-उच्चकों
को उसका नाम सुनते ही एक नंबर की ज़रूरत होने लगती।
उसे भी बहुत चिढ़ रही पतली मोहरी वालों से। कइयों की पतलून उतरवाई उसने। जिसकी नहीं
उतरी, उसकी से कैंची से मोहरी काट डाली। जब वो हज़रतगंज थाने से निकल कर बाहर खड़ा होता
था तो पतली मोहरी वाले बड़े से बड़े पहलवान दूर-दूर तक नहीं दिखते थे।
पतलून उतारने में दिक्कत के मद्देनज़र मुड़े हुए पोहंचे भी उसी ज़माने में गायब हुए।
पहनने-उतारने में कष्ट, स्ट्रेचिंग का न होना, जल्दी-जल्दी सीवन का उधड़ना, घिसना और फटना आदि तमाम दिक़्क़तों को देखते हुए पतली मोहरी पतलून का ये फ़ैशन ज्यादा
ठहर नहीं पाया। पांच-छह साल ही टिका।
उसके बाद आ गया बेल बॉटम पतलून का युग। इस घंटीनुमा पैंट की उम्र भी बस सात-आठ
साल रही।
अस्सी की शुरुआत में जनता पहनावे से कम से कम शरीफ़ दिखने लगी।
और २१वीं सदी की तमाम विडंबनाओं के बावजूद पिछली सदी का पहनावा आज भी नंबर वन पसंद
है।
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