Saturday, December 17, 2016

क़ैसरबाग़ में अब रात को रौनक नहीं होती

- वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ का एक मशहूर चौराहा है क़ैसरबाग़। बल्कि इसे छैराहा कहा जाए तो बेहतर होगा। एक सड़क चारबाग़ से लाटूश रोड से होते हुए आती है। दूसरी अमीनाबाद से नज़ीराबाद होते हुए। तीसरी क़ैसरबाग़ बस अड्डे से वाया कोतवाली। चौथी यूनिवर्सिटी से बारादरी होते हुए मिलती है। पांचवी लालबाग से आती है और छटी हुसैनगंज से आती हुई कैंट रोड है। पुराने लखनऊ के तक़रीबन सभी अहम इलाकों का संगम है यह।

जहां इतने रास्ते मिलते हों, वहां ज़ाहिर है कि सुबह पौ फटते ही आवागमन शुरू हो जाता है और दस बजते-बजते जाम लगना शुरू। देर शाम तक यही स्थिति रहती है।
मुझे आज से कई साल पहले के क़ैसरबाग़ का नज़ारा याद आता है। चश्मे वालों की दुकानें सब यहीं थीं। बैजल, अशोका और जनता ऑप्टिकल्स।
क़ैसरबाग़ तब भी सारा दिन मसरूफ़ रहता था और रात भर चहल-पहल भी खूब रहती थी। अंग्रेज़ी के मशहूर अख़बार नेशनल हेराल्ड का प्रेस कै़सरबाग़ में था। हिंदी का नवजीवन और उर्दू का क़ौमी आवाज़ भी वहीं से छपते थे। अख़बार को दूरदराज़ इलाकों तक पहुंचाने वाली टैक्सियां थोड़ी-थोड़ी देर में सुबह तक रवाना होती रहतीं।
थोड़ी ही दूर पर क़ैसरबाग़ बस अड्डा। सूबे के तमाम ज़िलों से आये तमाम मुसाफ़िरों का भी बहुत सा बोझ उठाता था क़ैसरबाग़ चौराहा।
रौनक की एक और वज़ह थी - शहर के सबसे बड़े दवाख़ाने खालसा मेडिकल स्टोर का भी वहीं पर होना। यह देर रात तक खुला रहता था। जहां हर किस्म की दवा मिलती थी। इमर्जेंसी में दवा मिलने का एकमात्र स्थान यही था। बामुश्किल एक किलोमीटर पर बलरामपुर हॉस्पिटल और डफ़रिन जनाना हॉस्पिटल भी था। लिहाज़ा रात बारह-एक बजे भी इस मेडिकल स्टोर पर भीड़ लगी देखी है मैंने।
यहाँ एक जनता कॉफी हाउस भी था। यहां कई बार दोस्तों संग डोसा खाया है मैंने।
आस-पास कई सिनेमाहाल भी थे - एलिफिस्टन, जो बाद में आनंद हुआ। इसके आस-पास निशात, जयहिंद, जय भारत, लिबर्टी, ओडियन और शिल्पी। हज़रतगंज के कैपिटल, प्रिंस, फिल्मिस्तान, मेफेयर, बसंत और नॉवल्टी भी कोई दूर तो थे नहीं। नाईट शो खत्म होने पर इसी चौराहे से होकर हज़ारों तमाशबीन घरों को लौटते। लिहाज़ा रिक्शा-तांगे वालों का जमावड़ा भी हर वक़्त जमा दिखता। चाय-शाय के होटल और पान-सिगरेट की दुकानें आबाद रहती थीं।
इन सब वज़हों से क़ैसरबाग़ चौराहा रातभर आबाद रहता था।

लेकिन अब बहुत कुछ बदल चुका है। हेराल्ड प्रेस बंद हो चुका है। तकरीबन आठ सौ सीट वाला आनंद अब सिकुड़ कर सवा सौ सीटों का आनंद सिनेप्लेक्स हो गया है। निशात, जयहिंद, जयभारत, बसंत, प्रिंस, शिल्पी, मेफेयर, कैपिटल, ओडियन आदि अनेक सिनेमाहाल बंद हो चुके हैं। लिबर्टी का नाम शुभम हो गया है। फिल्मिस्तान अब साहू कहलाता है। ख़ालसा मेडिकल स्टोर भी रात दस बजते-बजते बंद हो जाता है। शहर में हॉस्पिटल बहुत हो गए हैं। वहीं सब दवायें मिल जाती हैं।
और चश्मे वाले तो अब हर गली में दिख जाते हैं। पहले तो इक्का-दुक्का चश्माधारी थे और अब हर दूसरा बच्चा। लोग अकलमंद दिखने लगे हैं!

शहर बदलने के साथ साथ लोगों का मिजाज़ भी बदल गया है। पहले जैसे सब्र वाले नहीं रहे। पल भर में गंगा-जमुनी तहज़ीब भूल कर अबे-तबे और गिरेबान पकड़ने पर अमादा हो जाते हैं। 
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