Monday, December 19, 2016

आटोवाले भी दिलवाले हैं

- वीर विनोद छाबड़ा
किसी भी शहर का पीक आवर्स यानि सुबह नौ से ग्यारह। हरेक को गंतव्य पर पहुंचने की जल्दी है। किसी को आफिस जाना है तो किसी को दुकान खोलनी है। बाज़ स्कूल-कालिजों का भी यही वक़्त है। ऐसे में आटो और बसों में जगह पाने की खासी मारा-मारी है। मन करता है कि दो-चार रुपए ज्यादा लेले, पिछवाड़ा  टेकने भर की जगह मिल जाए। आटो वाला भी अच्छी तरह भिज्ञ है - आजकल दफ्तरों में बहुत सख़्ती चल रही है। देर से पहुंचने पर क्रॉस लगता है। छुट्टी भी कटती है। बाबू जायेगा कहां? झक मार के देगा ज्यादा।
उस दिन बंदे को जैसे-तैसे ऑटो मिली। स्टॉप पर उतर कर पचास का नोट दिया। आटो वाले ने बीस की जगह पच्चीस रूपये काटे। बंदे ने हिम्मत जुटा कर प्रोटेस्ट किया। ज्यादा क्यों लिया? किराया तो बढ़ा नहीं। आरटीओ से शिकायत करूंगा। चालान हो जाएगा।
आटो चालक ने आंखें तरेरीं। कर दे शिकायत। चालान होगा तो स्ट्राईक भी होगी। ट्रैफिक जाम हो जायेगा। आज तक यही हुआ है। हमने जो रेट तय किए। सरकार ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद झक मार के मोहर लगायी है। ज्यादा परेशानी है तो बस पकड़ ले। वैसे तू है बस की सवारी। तेरी सूरत पर लिखा है। 
बंदा ऑटो में बैठी अन्य सवारियों की और देखता है। कोई समर्थन नहीं करता। बल्कि सब ऑटो वाले की पीठ थपथपाते हैं। अरे भाई जल्दी कर। लेट हुए तो क्रॉस लग जाएगा। आजकल बॉस बहुत कड़क है।
बंदा कुछ बोल नहीं पाया। खून का घूंट पीकर रह गया। उसे अस्थमा है। बस में दम घुटता है। स्कूटर-बाईक से फोबिया है। पीछे बैठने तक से दहशत होती है। कार खरीदने की औकात नहीं। उसे उन सुहाने दिनों की याद आती है, जब वो हष्ट-पुष्ट था। न किसी की धौंस बर्दाश्त थी और न वक़्त जाया करता था। साईकिल जिंदाबाद थी। मीलों पैदल चलने का हौंसला भी था।

आज वक़्त कितना बदल गया है। निजी वाहनों के साथ-साथ आटो की भरमार है। एरियल व्यूह से बंदों से ज्यादा वाहन दिखते हैं। अगर कुछ नहीं बदला है तो आटो चालकों का मिजाज। बद से बद्तर हुआ है। लखनऊ वाले तो सुनने को तरसते हैं - आईए हुजूर, तशरीफ़ रखें। इंसानियत से किसी का कुछ लेना-देना नहीं। न बुजुर्गों, न बच्चे और न लेडीज़ का लिहाज़। आपको जाना दक्षिण है और ये उत्तर जाने की बात करते हैं। 
बंदे को कई आटो खाली खड़े दिखते हैं। लाख मिन्नत के बाद भी टस से मस नहीं होते। दरअसल, ये ऐसे घात लगाए बैठे होते हैं, ऐसे शिकार की आस में, जिसे फुल आटो चाहिए होता है। और ऐसे मिलते भी हैं। किसी को ट्रेन पकड़नी है तो किसी को बस। फिर ढेर सारा सामान भी है। आटो वाला शहर की हर गली-कूचे से वाकिफ़ है। गारंटी देता है। गड्डी नहीं छूटने पाएगी। बस अपनी ख़ुशी से दो पैसे ज्यादा दे देना। कोई बच्चों-परिवार के साथ है तो कोई नई-नवेली दुल्हन के साथ। अब ऐसे लोग धक्का-मुक्की में तो जाएंगे नहीं। ये सब आसान शिकार हैं और बहुतायत में पाए जाते हैं।
एक दिन बंदे को समाज सुधारक बनने की सूझी। भैया आटो पर आम आदमी बैठता है। तुम भी आम आदमी हो। एक आम आदमी को दूसरे आम आदमी से हमदर्दी होनी चाहिए।
आटो चालक भड़क गया। काहे का आम आदमी? कोई बैंक वाला है तो कोई रेल वाला। कोई पानी-सीवर विभाग में काम करता है तो कोई बिजलीघर में। डीएल लाईसेंस बनाने वाले भी अपनी सवारी हैं। सभी अपनी अपनी कुर्सी पर चौधरी हैं। फ्री में कोई काम नहीं करता। हमीं क्यों दें रिआयत? मंहगाई आसमान पर है। और फिर हमारे बच्चों को भी मॉल में शापिंग का शौक है। मल्टीप्लैक्स में सिर्फ आप ही के बीवी-बच्चे फिल्म देखें? हमारे क्यों नहीं? एसी होटल में हमें भी महीने में एक बार डिनर चाहिए।
ये तर्क सुनकर बंदा लाजवाब हो जाता है। और ऑटो वाले के पक्ष में वोट डाल देता है।
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