-वीर विनोद छाबड़ा
अचानक
एक ज़रूरी सरकारी काम से अचानक इलाहाबाद जाना हुआ। गर्मी के दिन थे। लखनऊ से इलाहाबाद
होते हुए मुगलसराय पैसेंजर रात दस बजे चारबाग के गदहा लाईन प्लेटफार्म से छूटी। बहुत
भीड़ थी। बामुश्किल एक डिब्बे में घुसने को मिला। लगा कि पूरी रात खड़े-खड़े गुज़रेगी।
ये अप्रैल,
1985 की बात है। रात ट्रेन में नींद कभी नहीं आई। सफ़र काटने के लिये
एक डिब्बी सिगरेट और माचिस जेब में रख ली।
तभी एक
उपाय सूझा। जेब से सिगरेट निकाल सुलगाई। फिर औपचारिकतावश सीट किनारे बड़ी सी चौकड़ी लगा
कर बैठे या़त्री को आफ़र की।
उस यात्री
को मेरे इस व्यवहार पर हैरानी हुई। मैंने इसरारकिया तो तनिक संकोच के साथ उसने सिगरेट
स्वीकार कर ली। उसके तीन साथी और भी थे जो बाकी बर्थ पर कब्जा किये बैठे थे। मैंने
उन्हें भी सिगरेट बढ़ा दी। ट्रिक काम कर गयी। उन्होंने खुद को तनिक समेटा और मेरे बैठने
भर की जगह निकाल दी।
थोड़ी
देर में कोई स्टेशन आया। भीड़ के कारण बाहर निकलना मुश्किल था। चाय की तलब लगी। खिड़की
पर बैठे अपने नए सहयात्री से बोल कर मैंने चाय बोली। अपने नये बने चारों सहयात्री मित्रों
को भी ऑफर किया। ना-ना करते वो चाय सुड़क गये।
बातों
से पता चला कि वे मजदूर थे। बम्बई शहर से कमाई करके घर जा रहे थे। अब चार-पांच हफ़्ते
बाद फिर लौटेंगे। चाय ख़त्म हो गई। चाय के बाद
सिगरेट की इच्छा जाग्रत होना लाज़िमी थी। एक खुद मुंह में दबायी और बाकी डिब्बी
उनकी ओर बढ़ा दी।
सिगरेट
की डिब्बी खाली। थोड़ी देर और गुज़री। इलाहाबाद अभी काफ़ी दूर। नींद भी कोसों दूर । जेब
में सिगरेट नहीं। जब कोई चीज नहीं होती है तो उसकी ज़रूरत शिद्दत से महसूस होती है।
ऐसे में ब्रांड की परवाह कोई भकुआ नहीं करता। तभी कोई स्टेशन आया।
खिड़की
के पास बैठे सहयात्री को बोल ही रखा था कि कोई सिगरेट वाला दिखे तो दो डिब्बी ले लेना,
चाहे कोई भी ब्रांड हो। कोई छोटा स्टेशन था। फिर रात का सन्नाटा।
मगर कोई सिगरेट वाला नहीं दिखा। उन नए मित्रों ने तो बीड़ी सुलगा ली।
मैंने
कभी पी नहीं थी बीड़ी। कुछ संकोच भी था कि कैसे मांगे बीड़ी। लेकिन तलब ने इतना ज्यादा
जोर मारा कि सारे बंधन टूट गए - अरे भाई एक बीड़ी मिलेगी।
मगर अब
संकोच करने की बारी उनकी थी। एक बोला- ‘साहेब हम सोचे तो रहे। लेकिन हैं हम नीच जाति हैं। पता नहीं आप पियोगे कि नहीं?’
मैंने
जात-पात और धर्म में कभी भेद नहीं किया था- ‘अरे भाई इंसान तो हो न! लाओ, एक अदद। आज तुम्हारी बीड़ी पीते हैं।’
पता ही
नहीं चला कि बीड़ियां पीते-पीते कब सवेरा हो गया और फिर इलाहाबाद आ गया। यहां मैंने
उन मित्रों को चाय-नाश्ता कराया। अपना एड्रेस दिया। कभी लखनऊ आना तो ज़रूर मिलना। उन
ट्रेन मित्रों को बैठने की जगह देने और बीड़ी के लिए धन्यवाद बोला। हाथ मिलाया। फिर
मिलने की उम्मीद के साथ विदा ली।
आज लगभग
तीस साल हो गए वो ट्रेन मित्र दोबारा कभी नहीं दिखे। डेली पैसेंजर को छोड़ दें तो ट्रेन
में बने मित्र अक्सर दोबारा नहीं मिला करते।
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