-वीर विनोद छाबड़ा
रफ़ी की गायकी की बारीकियों
के बारे में बात करना सूरज को दिया दिखाने के समान है। उनके लिए एक ही शब्द काफ़ी है
कि वो बेमिसाल थे। हर तरह के गाने गा सकते थे। चाहे क्लासिकल हो या वेस्टर्न। गंभीर
हो या कॉमेडी। उनकी आवाज़ का फ़लक़ बेहिसाब था। इसलिए उनके सबसे ज्यादा फैंस क्लब हैं।
अगर उन्हें मालूम होता
था कि उनका गाना फलां कलाकार पर फिल्माया जाना है तो फिर कहने ही क्या। वो खुद कलाकार
बन जाते। दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, प्रदीप कुमार, राजेंद्र कुमार और
देवानंद की भी रफ़ी बरसों स्थायी आवाज़ रहे। बिस्वाजीत (पुकारता चला हूँ मैं.…)
और जॉय मुखर्जी (आँचल में छुपा लेना कलियां…)
सरीखे अभिनेताओं के बारे में कहा जाता था कि वो अगर फिल्म में खड़े हो पाये तो उन
पर फिल्माए रफ़ी के गानों की वज़ह से।
रफ़ी जितने बेहतरीन
गायक थे उतने ही बेहतरीन इंसान भी। किसी भी नए कलाकार को अपनी आवाज़ देने में कभी कोई
संकोच नहीं किया उन्होंने। कॉमेडियन को भी आवाज़ को आवाज़ देकर इज़्ज़त बख़्शने वाले रफ़ी
साहब पहले थे। इस श्रंखला में जॉनी वॉकर का नाम टॉप पर रहा। मुफ़लिसी के दौर से गुज़र
रहे संगीतकार निसार बज़मी की 'खोज' के लिए रफ़ी ने एक रूपये
में गाया। उन दिनों बज़्मी साब को कोई घास नहीं डालता था। बाद में बज़्मी पाकिस्तान चले
गए और बहुत बड़े संगीतकार बन गए। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को भी पैर ज़माने में रफ़ी साहब
ने बहुत मदद की। उनकी पहली फिल्म 'छैला बाबू' के लिए पहला गाना मुफ़्त
में गाया। उन्हें कई फिल्मे भी दिलाईं। 'दोस्ती' में 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ
सवेरे…से लक्ष्मी-प्यारे कहां से कहां पहुंच गए। इसके लिए रफ़ी साब
को बेस्ट सिंगर का फिल्मफेयर पुरुस्कार भी मिला। राकेश रोशन की पहली फिल्म 'आपके दीवाने' के लिए रफ़ी साहब ने सिर्फ एक रुपए मेहनताना लिया था। दुनिया
जानती है कि बतौर निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन आज किस बुलंदी पर हैं।
लता जी के साथ झगड़े
के कारण रफ़ी साहब कुछ अलोकप्रिय भी हुए थे। झगड़े की कई कहानियां अफ़वाह फ़ैक्टरी में
भी बनायीं गयीं। लेकिन रिकॉर्ड में यह है कि उनका झगड़ा फिल्मों में गाने की रॉयल्टी
को लेकर था। इस मुद्दे पर बात इतनी गर्म हुई कि एक-दूसरे को भाई-बहन मानने वाले रफ़ी
और लता ने ऐलान किया कि साथ-साथ नहीं गाएंगे। कुछ लोग बताते हैं कि 'माया' फिल्म में एक गाने
(तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है.…) की रिकॉर्डिंग के दौरान
संबंध ख़राब हुए थे। एक इंटरव्यू में उषा तिमोती ने बताया था कि ये सब तो बहाने थे।
असल वज़ह थी कि रफ़ी जी आदतन हर नए गायक को प्रमोट करते थे। इसी कड़ी में उन्होंने सुमन
कल्याणपुर को प्रमोट किया। लताजी को ये बात पसंद नहीं आई थी। यों लताजी संगीतकार शंकर-जयकिशन
के शंकर के साथ भी गायिका शारदा को प्रमोट करने के मुद्दे को लेकर भी नाराज़ हुई थीं।
कुछ समय बाद संगीतकार जयकिशन ने १९६७ में रफ़ी और लता की सुलह करा दी।
परंतु दो साल बाद फिर
विवाद खड़ा हो गया। लताजी ने एक समारोह में बताया कि रफ़ी साहब ने उनसे लिखित माफ़ी मांगी
थी। जबकि रफ़ी के बेटे शाहिद रफ़ी का कहना था कि अगर ऐसा था तो लताजी माफ़ीनामा दिखायें।
वो माफ़ीनामा अभी तक पेश नहीं हो सका है।
बहरहाल इन तमाम विवादों
के बावजूद रफ़ी साब कद कम नही हुआ। दुनिया उन्हें एक ऐसे गायक के रूप में याद रखती है
जिसका कोई सानी नहीं। वो एक सच्चे मददगार होने के अलावा बेहद भावुक भी थे। मन तड़पत
हरी दर्शन को आज.… और बाबुल की दुआएं लेती जा.…बताते हैं वो इन गानों
की रिकॉर्डिंग पर फूट फूट कर रोये थे। सर्वश्रेष्ठ गायन के लिए फिल्मफेयर में रफ़ी २१
बार नॉमिनेट हुए और छह बार वो जीते। एक बार राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला था। उन्हें १९६७
में पदमश्री से नवाज़ा गया था। उनके चाहने वाले महसूस करते हैं कि रफ़ी साब को उनके बड़े
कद के अनुरूप इज़्ज़त नहीं मिली है। उन्हें सबसे बड़ा मैडल मिलना चाहिए।
उनकी अमर आवाज़ आज भी
कानों में गूंजती हैं - सुहानी रात ढल चुकी…हम बेखुदी में तुम
को पुकारे चले गए...बिछुड़े सभी बारी बारी…मिली ख़ाक में मोहब्बत…मधुवन में राधिका नाचे
रे.…मैं ज़िंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं...तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना…कर चले हम जानो तन
साथियों…मेरी आवाज़ सुनो…ये ज़िंदगी के मेले
दुनिया में कम न होंगे, अफ़सोस हम न होंगे…और ऐसे ही हज़ारों गाने।
अमृतसर के कोटला सुल्तानपुर
में २४ दिसंबर १९२८ को जन्मे रफ़ी साब की आवाज़ ३१ जुलाई १९८० को एक ज़बरदस्त
हार्ट अटैक ने खामोश कर दिया। उस शाम उन्होंने 'आस-पास' के लिए गाना रिकॉर्ड
किया था - शाम फिर क्यों उदास है दोस्त...। लेकिन अमर आवाज़ें कभी मरती नहीं। जब तक
फ़िज़ा है रफ़ी रहेंगे।
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Published in Navodaya Times dated 28 Dec 2016
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