Friday, December 23, 2016

कमाल करते हो पांडे जी!

- वीर विनोद छाबड़ा
पहले एक-दो सिगरेट से काम चलता था। डिब्बी इसलिए नहीं खरीदते थे कि जेब में होगी तो बार-बार पीने का मन करेगा। मगर अब तो पूरी डिब्बी ही खरीदनी पड़ेगी। अब आपकी मर्ज़ी एक पियो या दो।
पिछली सदी के अंतिम दशक में बिजली बोर्ड में एक बॉस साहब हुआ करते थे। सिगरेट के ज़बरदस्त तलबी।
वो रोज़ाना एक डिब्बी सिगरेट खरीदते। लेकिन डिब्बी पकड़ा देते पांडे जी को। पांडे जी उनके प्रमुख निज़ी सचिव थे। बॉस को जब तलब लगती घंटी बजा देते।   चपरासी अंदर आता - जी साहब। 
बॉस - अरे भई, पांडेजी को बुलाओ।
मिनट गुज़रा नहीं कि पांडेजी हाज़िर - जी सर। आपने याद किया।
बॉस ने इशारा किया। होंटों पर दो उंगली लगाई और फूंक मारी।
पांडेजी आराम से वापस अपने कमरे में जाते। दराज़ खोलते। डिब्बी खोलते। फिर उसमें से में से सिगरेट निकालते। फिर डिब्बी दराज़ में वापस रखते। दर्ज बंद करते और फिर चहल कदमी करते हुए बॉस के कमरे में जाते और सिगरेट को पेश करते। इस क़वायद में पांच से सात मिनट तो गुज़र ही जाते। लेकिन बॉस के चेहरे पर कभी कतई शिकन नहीं पड़ी और न पांडे जी को डांट पड़ी। बल्कि कॉम्पलिमेंट दिया जाता - बड़ी जल्दी ले आये। जेब में रखे थे क्या?
बहरहाल, बॉस बड़े इत्मिनान से सिगरेट लेकर होंठों पर फंसाते और इधर-उधर कुछ ढूंढते - अरे माचिस कहां है? अमां पांडे जी, आप भी आधा ही काम करते हो। कमाल करते हो।
माचिस पांडे जी की जेब में है। लेकिन पांडे जी फिर भी बाहर जाते हैं। दूर कोने में ऊंघ रहे एक चपरासी से माचिस का जुगाड़ करते। फिर साहब के कमरे में जाते हैं। इस क़वायद में फिर पांच से सात मिनट गुज़र जाते हैं। लेकिन बॉस ज़रा भी गुस्सा नहीं हैं। वो मुस्कुराते हैं - मिल गई।
पांडे जी भीनी मुस्कान के साथ उनकी सिगरेट सुलगाते हैं।

तब तक बॉस की तलब काफी हद तक ठंडी पड़ चुकी होती है। दो-चार गहरे कश लगाते हैं। फिर सिगरेट को ऐशट्रे में इस बुरी तरह क्रश करते हैं ताकि टुर्रा भी न बचे यानी सिगरेट दोबारा मुहं में लगाने के क़ाबिल ही न रहे। 
धीमी गति से ये सारी क़वायद जान-बूझ कर की जाती थी ताकि सिगरेट की तलब को ब्रेक लग जाए। कम सिगरेट, कम कश और कम से कम ज़हरीला धुआं फेफड़ों में जाए। रिटायरमेंट के बाद उनकी सिगरेट छूट गयी। सारा सारा दिन घर पर रहना पड़ता और वो भी पत्नी के सख्त पहरे में।

हमारे ख्याल से सिगरेट पीना एक तलब है, कुछ के लिए तो सुबह फ़ारिग होने की ज़रूरत है। ज़ोर-ज़बरदस्ती से कुछ नहीं होगा। आत्म नियंत्रण से ही बंद हो सकती है। कभी हम भी तलबी थे। एक दिन खुद पर बहुत गुस्सा आया। हम इतने कमजोर क्यों हैं कि एक बुराई हमें बर्बाद करने पर तुली है और हम उससे निजात नहीं हासिल कर पा रहे हैं। और उसी दिन छूट गयी। 
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