-वीर विनोद छाबड़ा
सहालग के रुकते ही शादी-ब्याह का मौसम ख़तम हो गया। लेकिन रिसेप्शन चल रहे हैं। औसतन एक दिन छोड़ कर कोई न कोई पार्टी। यों आजकल
लोग जन्मदिन और मुंडन की पार्टियां में भी लाखों फूंक देते हैं। पार्टी का तो बहाना
चाहिए। अच्छा लगता है। इसी बहाने फलां-फलां से मुलाकात होती है।
रिटायर मित्रों से मिल कर तो बहुत अच्छा लगता है। लेकिन पार्टी में पूरे ज़ोर-शोर
से बज रहा डिस्को इस समरसता को खंडित करता है। हम एक-दूसरे की बात ही नहीं सुन सकते।
एक दूसरे को गले लगा कर और इशारों से अपने भावनायें अभिव्यक्त करते हैं।
मेज़बानों से पूछना चाहता हूं कि हज़ारों रुपये खर्च करके सजाये पंडाल में आमंत्रित
मेहमान क्या कानफाड़ू डिस्को संगीत सुनाने के लिए एकत्रित किये हैं? डिस्को भी ठीक वहीँ
ठुका है जहां दूल्हा-दुल्हन विराजमान हैं। हम दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देते हैं कि
हम फलां-फलां। वो सुन भी नहीं पाता। फ़ीकी सी मुस्कान उसके चेहरे पर तैरती है बस। दुल्हन
से क्या परिचय करायेगा? क्या तूने कही और क्या मैंने सुनी?
कुछ दिन पहले अपने के मित्र के घर पहुंचा। एक नामी कैटरर महोदय भी वहां मौजूद थे।
सिलसिला बेटे के ब्याह बाद रिसेप्शन का था। आजकल सारे काम एक ही बंदा करा देता है। खाना-पीना, शामियाना, लाइट, डेकोरेशन वग़ैरह वग़ैरह।
बात डिस्को पर फंसी थी। मित्र हठ किये थे कि डिस्को नहीं रखेंगे।
लेकिन कैटरर बार-बार उन्हें उसी बिंदु पर ले आता था। इतना रुपया खर्च हो रहा है।
दस-बीस हज़ार और सही।
मित्र ने कहा - सवाल दस-बीस हज़ार का नहीं है। मेरे तमाम रिश्तेदार होंगे, दोस्त होंगे और ऑफिसर
भी। क्या डिस्को सुनने आएंगे?
कैटरर ने फिर घेरा - वही तो कह रहा हूं। ये सब आपके बारे में यही धारणा बनायेंगे
कि ऐसी क्या फकीरी थी। डिस्को नहीं लगाया? और फिर सोचिये आपके बच्चे और और उनके दोस्त। उनकी ख़ुशी का भी
तो ध्यान रखिये।
लेकिन मित्र तनिक भी नहीं पसीजे - सिर्फ लाइट म्यूजिक। वो भी पुरानी फिल्मों का।
बहारों फूल बरसाओ… चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है.…मेरे पिया गए रंगून
किया है वहां से टेलीफ़ोन… आंखों ही आंखों में
इशारा हो गया.…नदी किनारे गांव रे.… और बीच बीच में शहनाई भी। कम से कम लोग एक-दूसरे से बात तो कर सकेंगे।
मैं उन्हें शाबाशी देता हूँ - बिलकुल ठीक।
कुछ दिन बाद मैं पार्टी में बड़ी उम्मीदों से पहुंचा। लेकिन जो नज़ारा देखने को मिला
उसकी उम्मीद नहीं थी। कानफाड़ू डिस्को-फिस्को। लोग एक-दूसरे के कान में घुसे जा रहे
थे। सुन नहीं पा रहे थे कायदे से। एक्का-दुक्का डिस्को पर नाच रहे थे। असली डिस्को
वाले कहीं बैठे दारू पी रहे। धुत्त हो कर क्या नाचेंगे?
तभी मित्र दिखे। चेहरा छुपाने की कोशिश करते।
ये डिस्को संस्कृति महज़ ढोंग है। स्टेटस सिंबल के फेर में। शोर के प्रदूषण को बढ़ाता
है। लखनऊ के इंदिरा नगर में मुंशीपुलिया इलाके में मैं रहता हूं। सरकारी आंकड़े बताते
हैं कि मुंशीपुलिया सबसे ज्यादा शोर-शराबे वाला इलाका है। नियमों के मुताबिक रात १०
बजे डिस्को के बाद डिस्को नगाड़े बंद हो जाने चाहिए। पुलिस कहती है - पहले से ही इतने
सरदर्द हैं। अब कितने पंगे लें। कोई ने कोई महारथी उस पार्टी में होगा। हमारी किरकिरी
करा देगा।
पुलिस ठीक कहती है। अभी कल ही की बात है। हमारे शहर में एक जन्मदिन की पार्टी थी।
उसने रात ११ बजे के बाद नियम का हवाला देते
हुए डिस्को समेट लिया। शोहदों ने उसे धुन दिया और फ़रार हो गए। सुना है पुलिस
समझौता कराने पर तुली है।
---
22-12-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
No comments:
Post a Comment