-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे और पिता जी के बीच मित्र का रिश्ता रहा है। हमने उनसे हर समस्या खुल कर डिस्कस
की। पॉलिटिक्स और सामाजिक समस्याएं भी।
घर में अक्सर इल्मो-अदब से ताल्लुक रखने वालों की महफ़िलें जमती थीं। हम उसमें लगभग
हर बार हिस्सेदार रहे। इल्म में बाहरी ताकतों की दखलंदाज़ी को लेकर तो कभी हिंदी और
उर्दू के रिश्ते को लेकर जोरदार और गरमा-गर्म बहसें होतीं। ऐसी महफ़िलों में दारू चलती
और साथ में धुआं-धक्कड़ भी होता। लेकिन यहां हमने पिता-पुत्र के रिश्ते का लिहाज़ रखा।
एक बार उन्होंने हमसे पूछा भी था - तुम सिगरेट पीते हो। यह बात मुझे मालूम है।
और तुम्हें भी मालूम है कि तुम्हारा पिता इससे बखूबी वाकिफ है। व्हिस्की शेयर करते
हो तो सिगरेट क्यों नहीं।
हमने सफाई दी - हमें बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे कि हमारे मुंह से निकला झूठा धुंआ
आपके मुंह पर जाये। यह बदतमीज़ी की इंतहा होगी।
वो चुप हो गए। हमें यकीन हो गया कि हमारे स्पष्टीकरण से वो संतुष्ट हो गए होंगे।
एक रात करीब बारह बजे पिताजी ने हमें उठाया। बोले- एक अफ़साना लिख रहा हूं। कल रेडियो
पर पढ़ना है। सिगरेट खत्म हो गयी है। तुम्हारे पास हो तो दो-तीन दे दो। मूड बना हुआ
है। अफ़साना पूरा हो जायेगा।
हम बड़े असमंजस्य में पड़ गए। दरअसल सिगरेट तो थी हमारे पास, मगर हम ये ज़ाहिर नहीं
होने देना चाहते थे कि हम सिगरेट के इतने बड़े तलबी हैं कि पूरी डिब्बी भी रखते हैं।
अब तक हम यही प्रोजेक्ट करते आये थे कि कभी शौक़िया पी लेते हैं। बहरहाल, यह बात १९८५ की है।
उन दिनों नयी-नयी बसी इंदिरा नगर कालोनी में हम भी नये-नये थे।
मुंशी पुलिया पर मुट्ठी भर आबादी थी। इसके आगे कुछ भी नहीं था। वस्तुतः मुंशी पुलिया
को ही लखनऊ वाले नहीं जानते थे। आज मुंशी पुलिया को शहर का बच्चा बच्चा जानता है।
हां, तो बात सिगरेट की चल रही थी। मुंशी पुलिया क्या पूरे इंदिरा नगर में पान-सिगरेट
की इक्का-दुक्का दुकानें थीं। इतनी रात में सिगरेट मिलने का तो सवाल ही नहीं। हम सफेद
झूठ बोल गए - सिगरेट तो नहीं है हमारे पास। मगर देखते हैं कि मुंशी पुलिया पर शायद
कोई दुकान खुली मिल जाये। हमने अपनी मिलिट्री कलर वाली सुवेगा मोपेड उठाई। थोड़ी देर
तक इधर-उधर टहले। सड़क किनारे लगे बालू के ठंडे ठंडे ढेर पर बैठ कर एक अदद सिगरेट फूंकी।
देखा छह बाकी थीं। उसमें से एक निकाल जेब में रखी और लौट आये। डिब्बी पिता जी को दे
दी।
पिताजी ने पूछा - कहां से मिली?
हमने बोला- वो बजरंगी पानवाला है न। अच्छी जान-पहचान है। अपनी गुमटी के बाहर ही
सो रहा था। उसे उठा कर गुमटी खुलवा ली थी।
पिता जी समझ तो गये कि हम सफ़ेद झूठ बोल रहे हैं। मगर बोले कुछ नहीं। सिर्फ मुस्कुरा
भर दिए। वो समझ गये कि बेटा सिगरेट के मामले में पिता से दूरी बना कर रखना चाहता है।
सामने कोई ऑडियंस नहीं है। स्क्रिप्ट नहीं। डायरेक्टर नहीं। लाइट एंड साउंड नहीं।
सब कुछ जानते-बुझते हुए भी कभी-कभी नाटक खेलना पड़ता है। और ऐसे कई नाटक हमने पिता के
साथ खेले और हर बार पकड़े गए। कहा उन्होंने कुछ नहीं। लेकिन हम समझ गए कि वो क्या कहना
चाहते हैं - बाप बाप होता है।
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