- वीर विनोद छाबड़ा
१९६१ में रिलीज़ 'जंगली' बहुत बड़ी हिट थी। यों
तो इसके हिट होने के कई कारण थे। इन्हीं में से एक था, शम्मीकपूर का जोश में
जोर से चीखना - याहू...। दर्शकों के लिए यह शब्द नया था। इसका अर्थ भी नहीं मालूम था।
शम्मी ने बायोग्राफी 'दि गेमचेंजर' में बताया है कि जब
वो पृथ्वी थिएटर में काम करते थे तो वहां एक पठान हुआ करता था। जब वो बहुत खुश होता
था तो उन्मादित होकर जोर से चीखता था - याहू...।
फिल्म में सिचुएशन
के अनुसार हीरो गंभीर किरदार के खोल से बाहर आकर एकाएक उन्मादित होता है। इसकी अभिव्यक्ति
एक गाने से होनी है। शैलेंद्र ने गाना लिखा - चाहे कोई मुझे जंगली कहे... तब इसमें 'याहू' शब्द नहीं था। जयकिशन इस गाने की धुन तैयार कर रहे थे तब शम्मी को 'याहू..' की याद आयी। उन्होंने
जयकिशन को मन की बात कही। जय किशन को बहुत अजीब सा लगा यह याहू। लेकिन शम्मी थे जयकिशन
के दोस्त। गाने में याहू... आ गया।
समस्या पैदा हुई कि
इसे गायेगा कौन? मोहम्मद रफ़ी ने बहुत बार कोशिश की। लेकिन बात बनी नहीं। उनका
गला बैठने लगा। जयकिशन को याद आया कि यूनिट में एक हरफनमौला बंदा है - प्रयागराज। चाहो
तो कोरस में खड़ा कर दो या कोई छोटा-मोटा वाद्ययंत्र पकड़ा दो। एक्टिंग भी कर लेता है
और छोटा-मोटा सीन भी लिख देता है। वो पापी पेट के लिए कुछ भी कर सकता है। और प्रयागराज
तैयार हो गए।
और गाना रिकॉर्ड हो
गया। चाहे मुझे कोई जंगली कहे... इस गाने के आठ रिटेक हुए और प्रयागराज को चालीस बार
पूरा गला फाड़ कर चीखना पड़ा - याहू...। बेचारा प्रयागराज। गला बैठ गया। कई दिन लगे ठीक
होने में। ट्रेजेडी तो यह हुई प्लेइंग रिकॉर्ड पर सिर्फ मो.रफ़ी का नाम था, प्रयागराज का नहीं
और पब्लिक श्रेय देती रही रफ़ी और शम्मीकपूर को। ज्ञातव्य है कि आगे चल कर इन्हीं प्रयागराज
ने मनमोहन देसाई की कई फिल्मों के स्क्रीनप्ले लिखे और सत्तर के दशक में हिफाज़त,
पोंगा-पंडित, पाप और पुण्य, गिरफ्तार, चोरसिपाही आदि कई फ़िल्में
डायरेक्ट कीं। वो अमिताभ बच्चन की 'कुली' में मनमोहन देसाई के
सहयोगी निर्देशक भी रहे।
इस गाने के फिल्मांकन
में भी कई परेशानियां आयीं। श्रीनगर के पहलगाम में जब सुबोध मुखर्जी वहां यूनिट लेकर
पहुंचे तो पता चला कि वहां पर्याप्त बर्फ ही नहीं है। हीरो और हीरोइन को छाती के बल
लेट कर स्केटिंग करनी है। उसके लिए कम से दस-बारह इंच बर्फ तो चाहिए ही। बर्फ गिरने
के इंतज़ार में पूरे आठ दिन तक बैठे रहे सब। लेकिन बर्फ नहीं गिरी। आखिर में निराश होकर
यूनिट बंबई लौट गयी।
कुछ महीने बाद सुबोध
मुखर्जी को एक और लोकेशन समझ में आयी। यह थी - कुफ़री, शिमला के निकट। सात
दिन का शेड्यूल था। बर्फ की मोटी परत देखकर शम्मी झूम उठे। बाकी लोग भी प्रसन्न। सबकी
निगाहें शम्मी पर। उनके लिए कोई डांस डायरेक्टर नहीं हुआ करता था। डांसर तो उनके दिल
में था। गीत-संगीत शुरू हुआ नहीं कि पूरा बदन थिरकने लगा। जुनून था उनमें। लेकिन,
जैसे ही शूटिंग शुरू हुई, सूर्य देवता रूठ गए। पूरे छह दिन तक लुका-छुपी
का खेल चला। शूटिंग के लिए कैमरा रेडी हुआ नहीं कि बादल आ गए। लेकिन सातवें दिन देवता
प्रसन्न हुए। बादल दूर दूर तक नहीं। शम्मी तो इतने जोश में थे कि सारे शॉट एक ही टेक
में ओके होते चले गए। सात दिनों का काम सिर्फ सात घंटों में निपट गया। किसी को ख्याल
भी नहीं था कि जिस गाने को फिल्माया गया है वो कुछ ही दिनों बाद फ़िल्मी गीत-संगीत के
दुनिया में लैंडमार्क बन जाएगा।
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Published in Navodaya Times dated 24 Dec 2016
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