- वीर विनोद छाबड़ा
गुल्लू बाबू ने बुढ़ौती में कार खरीदने का मन बनाया। बच्चों ने नाक में दम कर दिया
है। हमारी तरह एलआईजी के दो कमरे का छोटा सा घर है उनका। दो-दो बहु-बेटे, चार उनके बच्चे
और खुद पति-पत्नी, कुल अदद आठ प्राणी हैं। दो बाईक और एक अदद स्कूटी
आगे छोटे से लॉन में खड़ी रहती हैं। एक पुरानी साईकिल भी कबाड़ माफिक खूंटी पर टंगी है।
कार कहां खड़ी होगी? गुल्लू बोले - चार फुट घर के अंदर और बाकी फुटपाथ
के लिए छोड़ी जगह पर घेरेबंदी करके गैराज बना ली है।
गैराज के नाम पर हमें याद आया कि हमारे एक मित्र छिद्दू बाबू ने भी कार गैराज बनवाया
था, बिलकुल कार की नाप का। मिस्त्री ने बहुत समझाया था। लेकिन माने नहीं थे। उलटे मिस्त्री
से भिड़ गए कि पैसा तेरे बाप का लग रहा है या मेरे बाप का। और वही हुआ, जिसकी आशंका थी।
गैराज में कार घुस तो गयी। मगर न दाएं निकलने की जगह थी और न बाएं। ऊपर से आस-पास वालों
के लिए टैक्स फ्री मनोरंजन की सामग्री बने, सो अलग। अंततः उन्होंने कार बेच कर गैराज में
परचून की दूकान खोल ली, निठल्ले बेटे के लिए।
गुल्लू बाबू किस्सा सुन कर हंस पड़े। हमने दो-दो फुट जगह छोड़ी है। फिर भी हमने बहुत
समझाया कि देखो ज़माना बहुत ख़राब। पिछले महीने हमारे पड़ोसी के मेहमान की नई इनोवा चोरी
हो गयी। रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ था। बेचारे डिनर खाने आये थे।
फिर हमें अपना ज़माना याद आया। मारूति ८०० स्टैंडर्ड ली थी, भूमंडलीकरण की
शुरूआत में। चौराहे पर खड़ा बड़ी मूंछ वाला सिपाही भी सल्यूट मारता था। अपनी गली क्या
आगे-पीछे की छह-छह गलियों में भी इकलौती रही सालों तक। मगर इस बीच रात-दिन प्रसूताओं
और बीमारों को लादती फिरी। मुंह से 'ना' नहीं निकलती थी। समाजसेवी जो ठहरे। पत्नी बड़बड़ाती
रही। इससे अच्छा तो एम्बुलैंस खरीद लेते।
आजकल तो कार खरीदना आसान है। चलाना मुश्किल है। छिद्दू बाबू के साथ यही हुआ। हमें
क्या मालूम था कि कार पेट्रोल पानी की तरह पीती है। शान बघारने के लिए बाहर चारदीवारी
के साथ सटी खड़ी है। स्कूटी पर आ गए। छटे-छमाही तब चलती है जब शादी-ब्याह आदि समारोह
में जाना होता है।
हमारे एक अन्य मित्र नंदू बाबू भी पार्किंग को लेकर बहुत दुखी रहते हैं। न्यौता
देने वाले से पहले ही पूछ लेते हैं - गेस्ट हाऊस के आस-पास पार्किंग स्पेस है कि नहीं।
अगला गर्व से कहता है, हज़ार कार खड़ी हो सकती हैं। लेकिन नंदू बाबू को
विश्वास नहीं होता। उस दिन हमें बता रहे थे कि एक समारोह में गए। पार्किंग के लिए दूर
दूर तक जगह नहीं मिली। फैमिली को तो अंदर भेज दिया खुद इधर-उधर घंटों टहलते रहे। नयी
कार थी, सो डर भी लगता था कि चोर-उचक्के न ले उड़ें। फिर सिपाही लोगों का भी भरोसा नहीं
होता। चालान काट दिया तो। कभी कभी तो क्रैन से उठा भी ले जाते हैं। फिर उन्हें ढूंढते
फिरो। हज़ार से नीचे बात नहीं करते। इतना तो शादी में 'व्यवहार' नहीं दिया होता।
पड़ोसी टिल्लू बाबू को तो बहुत न्यौते मिलते
हैं। यों तो उन्हें तमाम शादीघरों की जानकारी है। लेकिन कोई अनदेखा भी होता है। ऐसी
सूरत में वो दिन में स्कूटी उठा कर निरीक्षण कर आते हैं। इसी बहाने सड़क के आस-पास गड्डों
की जानकारी भी कर लेते हैं। परंतु खुद को बहुत चालाक समझने के बावज़ूदटिल्लू बाबू की
कार पर दर्जनों डेंट और खुरचनें हैं। बंपर भी कीलों-पेंचों से ठुके हैं। यह सब ख़राब
ड्राईविंग का नहीं अव्यवस्थित पार्किंग का परिणाम हैं। पिछली बार उन्होंने अंजाने में
'निषेध' स्थान कार पार्क
करी ही थी कि पले हुए दो विशाल और खूंखार कुत्तों ने उन्हें दौड़ा दिया। मोटे-मोटे कई
इंजेक्शन लगवाने पड़े थे। अब उन्होंने कार बेच दी है। आसपास के स्टोन-थ्रो वाले न्यौते
निपटाते हैं। पेट्रोल, समय और ऊर्जा की बचत और साथ में पार्किंग के झंझट
से भी फुरसत। हम भी कार बेच कर उनका अनुसरण करने जा रहे हैं।
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Published in Prabhat Khabar dated 12 Dec 2016
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